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________________ १३८ आप्तवाणी-६ प्रश्नकर्ता : बताएगा। दादाश्री : उस घड़ी आपको कौन सी दृष्टि में रहना पड़ेगा? प्रश्नकर्ता : ज्ञाता-दृष्टा। दादाश्री : एशो-आराम करने जाएँगे तो हमें गंध आएगी, इसलिए ज्ञाता-दृष्टा ही रहना। प्रकृति में गटर-वटर आएँ, तब उसमें जागृत रहना। प्रश्नकर्ता : 'हम' 'पड़ोसी' को 'देखते' रहें और उसे सही रास्ते पर मोड़ने का प्रयत्न नहीं करें तो वह कैसे चलेगा? वह दंभ नहीं कहलाएगा? दादाश्री : हमें मोड़ने का क्या अधिकार? दख़ल नहीं करनी है। उसे कौन चलाता है, वह जानते हो? हम चलाते भी नहीं है और हम मोड़ते भी नहीं है। वह 'व्यवस्थित' के ताबे में है। तो फिर दख़ल करने से क्या मतलब है? जो हमारा 'धर्म' नहीं है, उसमें दख़ल करने जाएँ तो परधर्म उत्पन्न होगा! प्रश्नकर्ता : इस जन्म में ही ज्ञान से ही हमारा उल्टा आचरण स्टॉप हो जाएगा या नहीं? दादाश्री : हो भी सकता है! 'ज्ञानीपुरुष' के कहे अनुसार करे तो पाँच-दस वर्ष में हो सकता है। अरे, एकाध वर्ष में भी हो सकता है! 'ज्ञानीपुरुष' तो तीन लोक के नाथ कहे जाते हैं। वहाँ पर क्या नहीं हो सकता? कुछ बाकी रहेगा क्या? इन दादा के पास बैठकर सबकुछ समझ लेना पड़ेगा। सत्संग के लिए टाइम निकालना पड़ेगा। 'अमे केवलज्ञान प्यासी, दादाने काजे आ भव देशुं अमे ज गाळी...' - नवनीत इन्हें तृषा किसकी है?
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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