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________________ आप्तवाणी-६ १३९ केवलज्ञान की ही तृषा है। हममें अब दूसरी कोई तृषा रही नहीं। तब हम उसे कहें, 'अंदर रही है तृषा, उसकी गहराई से जाँच तो कर?' तब कहे, 'वह तो प्रकृति में रही है, मेरी नहीं रही। प्रकृति में तो किसी को चार आना रह गई हो, किसी की आठ आना रह गई हो तो किसी की बारह आना रह गई हो, तो बारह आनेवाले को भगवान दंड देते होंगे?' तब कहे, 'ना, भाई तेरी जितनी कमी है, उतनी तू पूरी कर।' अब प्रकृति है तब तक उसकी सभी कमियाँ पूरी हो ही जाएँगी। यदि दख़ल नहीं करोगे तो प्रकृति कमी पूरी कर ही देगी। प्रकृति खुद की कमी खुद पूरी करती है। अब इसमें 'मैं करता हूँ' कहा कि दख़लंदाजी हो जाएगी! 'ज्ञान' नहीं लिया हो तो प्रकृति का पूरे दिन उल्टा ही चलता रहता है, और अब तो सीधा ही चलता रहता है। प्रकृति कहे कि, 'तू सामनेवाले को उल्टा सुना दे', लेकिन अंदर कहेगा कि, 'नहीं, ऐसा नहीं करते। उल्टा सुनाने का विचार आया, उसका प्रतिक्रमण करो।' और ज्ञान से पहले तो उल्टा सुना भी देता था और ऊपर से कहता था कि और ज्यादा सुनाने जैसा है। इसलिए अभी जो अंदर चलता रहता है वह समकित बल है! ज़बरदस्त समकित बल है। वह रात-दिन निरंतर काम करता ही रहता है ! प्रश्नकर्ता : वह सब काम प्रज्ञा करती है? दादाश्री : हाँ, वह काम प्रज्ञा कर रही है। प्रज्ञा मोक्ष में ले जाने के लिए, खींच-खींचकर भी मोक्ष में ले जाएगी। प्रश्नकर्ता : लेकिन दादा, प्रकृति का फोर्स कईबार बहुत आता है। दादाश्री : वह तो जितनी भारी प्रकृति होगी उतना फोर्स अधिक होगा। प्रश्नकर्ता : परंतु उस समय 'ज्ञान' भी उतना ही जोरदार चलता है।
SR No.030017
Book TitleAptavani Shreni 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2013
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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