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________________ ४० आप्तवाणी-५ है, परन्तु फिर वापिस मन-बुद्धि उसे पकड़ लेते हैं I अवस्था में अस्वस्थ, स्व में स्वस्थ प्रश्नकर्ता : वीतरागों की अनुपस्थिति में अवस्था में अस्वस्थ हो जाते हैं और उनकी उपस्थिति में स्वस्थ रहा जाता है, ऐसा क्यों होता है ? दादाश्री : उपस्थिति में तो स्वस्थ रहता ही है। अस्वस्थ रहता है, वह तो आपकी बुद्धि करवाती है और बुद्धि है तब तक अहंकार है, और अहंकारवाली बुद्धि है, वह अस्वस्थ करवाती है । उसका यदि 'एन्ड' (अंत) आ जाए तो अस्वस्थ होने का कोई कारण ही नहीं रहेगा । प्रश्नकर्ता : भौतिक रूप से तो वह संभव ही नहीं होता न? दादाश्री : नहीं, संभव नहीं होता ! फिर भी जितना लाभ मिले उतना सच्चा! नहीं तो आपकी बुद्धि और अहंकार निकाल (निपटारा) करते-करते खत्म हो जाएँगे, तब फिर अपने आप ही निरंतर स्वस्थता रहेगी, स्व में रहने के लिए स्वस्थता और वह अवस्थाओं में रहता है इसलिए अस्वस्थता है। अवस्थाएँ सभी विनाशी हैं, स्व अविनाशी हैं। यानी अविनाशी में रहे तो स्वस्थ रह सकता है और नहीं तो फिर अस्वस्थ रहा करता है । प्रश्नकर्ता : अवस्था में अस्वस्थ रहता है, उसे खुद देख सकता है और जान सकता है फिर भी स्वस्थ नहीं रहा जा सकता, उतना बुद्धि का आवरण अधिक कहलाएगा? दादाश्री : नहीं, वहाँ पर क्या न्याय है कि जो देखता है, दादा ने जो आत्मा दिया है, ‘शुद्धात्मा', वही इन सबको देखता है। 'उस' रूप से 'हम' रहें तो कुछ भी झंझट नहीं है । नहीं तो स्वस्थ और अस्वस्थ देखने जाएँ तो उसका अंत ही नहीं आएगा । प्रश्नकर्ता : उसकी चाबी कौन-सी ? दादाश्री : स्वस्थ हो जाए या अस्वस्थ, दोनों का जानकार शुद्धात्मा है। अस्वस्थ हो जाता है इसलिए खुद उसमें, 'फ़ॉरेन' में हाथ डालता है।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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