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________________ आप्तवाणी-५ यह, ‘मैं करता हूँ’ ऐसा मानता है । अरे, तू यहाँ पर कहाँ है? यह तो सचर है, 'मिकेनिकल' (भौतिक) आत्मा है । उसके भीतर अचर है, वह शुद्धात्मा है। बाहर प्रकृति है, वह सचर विभाग है और अचर आत्मविभाग है। लोग सचर को स्थिर करना चाहते हैं । प्रकृति तो मूल स्वभाव से ही चंचल है । जगत् घड़ीभर भी विस्मृत हो सके, ऐसा नहीं है। कर्त्तापन का मिथ्यात्व १९ शास्त्र तो सभी जानते हैं, परन्तु अनजान किससे है? आत्मा से ! सबकुछ जाना परन्तु आत्मा से अनजान रहा । वह तो ऐसा ही समझता है कि, ‘यह मैं करूँ तो ही होगा ।' वह क्या कहता है ? अरे, अंगारों पर बैठ । अपने आप हो जाएगा सबकुछ ! अंगारों पर बैठने से अपने आप छाले हो जाएँगे या नहीं होंगे? अरे, यह दूसरा सब जाना उससे तो 'इगोइज़म' बढ़ेगा बल्कि ! जो करता है, उसे बंधन होता है । जो कुछ भी किया, वह सब बंधन है। त्याग करें या ग्रहण करें सब बंधन ही है। लिए तो देने पड़ेंगे और दिए तो लेने पड़ेंगे। ये रुपये उधार दिए हों, उन्हें छोड़ सकते हैं परन्तु त्याग का फल आएगा तब लेना ही पड़ेगा । - प्रश्नकर्ता: सभी शास्त्रों का हेतु तो आत्मा का दर्शन करना ही है न? तो फिर आत्मा का दर्शन क्यों नहीं होता? 'इगोइज़म' क्यों बढ़ता है? दादाश्री : 'इगोइज़म' बढ़ता है वह भी ठीक है, क्योंकि वह ‘डेवेलपमेन्ट' (विकास) है। इन कॉलेजों में सबसे अंतिम पी. एच. डी होने जाते हैं, परन्तु जितने बन सके उतना सच । सभी नहीं बनते। धीरे-धीरे ‘डेवलप' (विकसित) होता है । 'इगोइज़म' बढ़ता है, वह भी ठीक है। उसमें जो अंतिम ‘ग्रेड' के दो-चार होते हैं उन्हें 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाते हैं, तब वे पास हो जाते हैं । तब तक ऐसे करते-करते आगे बढ़ते हैं। पहले 'इगोइज़म' को खड़ा करता है । हिन्दुस्तान के बाहर जो 'इगोइज़म' है, वह साहजिक ‘इगोइज़म' है। उनका 'इगोइज़म' कैसा है? जहाँ जाना है, वहाँ
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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