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आप्तवाणी-५
दादाश्री : यह ‘दादा भगवान' नहीं बोल रहे है, यह तो ‘ओरिजिनल टेपरिकॉर्डर' बोल रहा है । यह 'अक्रम विज्ञान' है । कहीं भी सुनी नहीं हो, वैसी यह बात है !
अतः यह जो सुनते हैं, वह कान का धर्म है । बहरा मनुष्य हो उसे हम क्या कहते हैं कि कान उनके धर्म में नहीं है ।
अब आँख का धर्म क्या है?
प्रश्नकर्ता : देखना ।
दादाश्री : हाँ, आत्मा का धर्म देखने का नहीं है। नाक का धर्म क्या है?
प्रश्नकर्ता : सूंघना ।
दादाश्री : जीभ का धर्म क्या है?
प्रश्नकर्ता : चखना ।
दादाश्री : इसलिए कैसा भी कड़वा जीभ पर रखो कि तुरन्त ही पता चल जाता है। अर्थात् ये पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने धर्मों में हैं। अब उसी प्रकार ही पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने धर्म में हैं । द्रव्येन्द्रियाँ और भावेन्द्रियाँ दोनों हैं। द्रव्येन्द्रियाँ खत्म हो जाएँ, तब भी भीतर भावेन्द्रियाँ रहती हैं। इसलिए पाँच द्रव्येन्द्रियाँ और भावेन्द्रियाँ सभी अपने-अपने धर्म में ही
हैं।
मन अपने धर्म में है या नहीं?
प्रश्नकर्ता : वह समझ में नहीं आता।
दादाश्री : मन हमेशा सोचता रहता है । विचारों का सिलसिला चले तब उसे हम मन कहते हैं। मन दो प्रकार के विचार करता है। खराब विचार करता है और अच्छे विचार भी करता है । अर्थात् दोनों प्रकार के विचार करने, वह मन का धर्म है और विचार ही यदि नहीं आते हों तो उसे