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को देहधारी परमात्मा ही कहा जाता है ! जिनकी एक भी स्थूल भूल या सूक्ष्म भूल नहीं होती, वे 'ज्ञानी पुरुष' कहलाते हैं ।
जबरदस्त पुण्यानुबंधी पुण्य परिपक्व हों तब ऐसे 'ज्ञानी पुरुष' से भेंट होती है। इस काल में ऐसे ज्ञानी हो चुके हैं, संपूज्य श्री दादाश्री ! कईयों को प्रश्न होगा कि दादा का ज्ञान प्राप्त करना है, परन्तु पूर्व में गुरु बनाए हुए हैं, उनका क्या? उसके लिए पूज्य दादाश्री यहाँ पर कहते हैं कि उन्हें रहने देना, व्यवहार में गुरु चाहिए और मोक्ष के लिए ज्ञानी चाहिए । गुरु वे, जो सांसारिक धर्म सिखलाएँ । वे संत पुरुष कहलाते हैं । अशुभ छुड़वाते हैं और शुभ पकड़वाते हैं । आत्मप्राप्ति वहाँ पर नहीं होती, और 'ज्ञानी पुरुष' मोक्ष देते हैं, घंटेभर में ही, नक़द !
भक्त और ज्ञानी में क्या फर्क है? सेवक और सेव्य जितना !
ज्ञानी जबरदस्त यशनाम कर्म लेकर आए हुए होते हैं। उनसे लोगों के भौतिक काम भी हो जाते हैं, परन्तु ज्ञानी उसमें खुद कुछ भी नहीं करते
हैं।
ज्ञानी के अंगूठे में अहंकार विलीन करने का सोल्वेन्ट होता है और उस जगह से ही आपको जल्दी तार पहुँचता है । एक समय भी परसमय में नहीं रहें, निरंतर स्वसमय में रहें, वे सर्वज्ञ । दादा को सभी कर्मों का अभाव होता है। पूज्य दादाश्री कहते कि हमें केवळज्ञान में सिर्फ चार डिग्री की ही कमी है, काल के कारण !
मोक्षमार्ग में पात्रता के लिए मात्र 'परम विनय और मैं कुछ भी नहीं जानता', वह भाव चाहिए । ज्ञानी का अविनय खुद को ही मोक्ष के अंतराय डालता है।
जिस गाँव जाना है, उसका ही ज्ञान जानने जैसा है। उसके अलावा दूसरा कुछ भी इन्वाइट करने जैसा नहीं है । अक्रम विज्ञान में आरती, भक्ति वगैरह क्रियाएँ नहीं कहलातीं। उनमें खुद कर्त्ता नहीं बनता है । जुदा रहकर करवाता है। इसलिए यहाँ पर किसी व्यक्ति की भक्ति नहीं है, परन्तु खुद,
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