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________________ शुद्धात्मा हूँ' वैसा लक्ष्य बैठ गया, उसे ही निजस्वरूप का भान हुआ और उसे ही अंतरात्मदशा हुई, ऐसा माना जाता है। चित्त और प्रज्ञा में क्या फर्क है? चित्त बाहर भटकता है। शुद्ध चित्त होने के बाद में वह नहीं भटकता । प्रज्ञाशक्ति बाहर नहीं जाती । प्रज्ञा तो मूल आत्मा का अंग है, डायरेक्ट शक्ति है। जो ज्ञान और अज्ञान को निरंतर अलग रखती है! ज्ञानी की समझ से मोहनीय कर्म पूरा खत्म हो सकता है। टकराव टालो। पूर्वग्रहरहित हो जाएँ, तभी कल्याण होगा । अक्रमज्ञान मिलने के बाद 'मैं शुद्धात्मा हूँ', वह उपयोग रहना चाहिए। जीव मात्र में शुद्धात्मा है, ऐसा दृष्टि में रहना चाहिए। फिर वह व्यक्ति हमारा अपमान करनेवाला हो या जेब काटनेवाला हो ! आत्मा जानने के बाद हर एक को खुद का पुद्गल खपाना है । हर एक को अपने-अपने धर्म के पुद्गल का आवरण होता है। जैन को जैन पुद्गल और वैष्णव को वैष्णव पुद्गल, जो मोक्ष में जाने से रोकता है। उसे क्षय करने पर ही मोक्ष होगा। ज्ञानी को चारित्रमोह बहुत कम होता है और ज्ञानी के आश्रितों को उसका क्षय करना बाकी रहता है ! जितनी - जितनी 'फाइलें ' पूरी होती हैं, उतना-उतना चारित्रमोह क्षय हुआ कहा जाता है। शुद्ध उपयोग से ही चारित्रमोह का क्षय होता है ! कर्म क्रिया से नहीं बंधता, ध्यान से बंधता है! पाँच लाख का दान पुण्य नहीं बंधवाता, परन्तु उस समय भीतर ध्यान में क्या था कि मेयर के दबाव से देने पड़े, नहीं तो पाँच रुपये भी नहीं देता ! तो वह वैसा कर्म बांधता है। परन्तु पाँच रुपये भी नहीं देने हैं !!! ध्यान का आधार क्या है? भीतर का ‘डेवलपमेन्ट' । धर्म क्या? अर्थ क्या? काम और मोक्ष क्या ? स्वार्थ अर्थात् सांसारिक स्वार्थ को कहते हैं, वहाँ से लेकर ठेठ २४
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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