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आप्तवाणी-५
मैं १७-१८ वर्ष का था तब आँख दबाकर मैंने एक प्रयोग किया था। एक बड़ा चमकारा हुआ और उजाला-उजाला दिखा ! मैं सोच में पड़ गया कि यह क्या हुआ! फिर मुझे समझ में आया कि यह तो आँख की लाइट चली गई।
जो भौतिक है वह कभी भी आत्मा होनेवाला नहीं है, जो आत्मा है वह कभी भी भौतिक नहीं हो सकता। दोनों निराली ही वस्तुएँ हैं।
प्रश्नकर्ता : निर्गुण अर्थात् क्या?
दादाश्री : निर्गुण अर्थात् जहाँ पर प्रकृति का एक भी गुण नहीं रहा वह, और सगुण अर्थात् देहधारी रूप में परमात्मा आए हों तो सगुण परमात्मा कहलाते हैं।
प्रश्नकर्ता : मोक्ष का रास्ता क्या?
दादाश्री : आप बँधे हुए हो ऐसा आपको लगता है? जिसे जेल में डाला हो, उसे मुक्ति चाहिए।
प्रश्नकर्ता : बंधन तो है ही न! दादाश्री : बंधन में क्या-क्या लगता है? प्रश्नकर्ता : अभी तो यह संसार बहुत अच्छा लगता है। दादाश्री : कड़वा नहीं लगता? प्रश्नकर्ता : गहराई में जाएँ तो कड़वा लगे।
दादाश्री : इतनी अधिक कड़वाहट लगती है, फिर भी इस जीव का कैसा स्वभाव है? वह वापिस आम काटकर खाकर सो जाता है! अरे अभी तो बीवी के साथ लड़ा था और वापिस क्या देखकर आम खा रहा है? लड़ाई होती है और बीवी आम काटकर दे तो किस काम की? एक बार लड़ाई हो जाए, वह किस काम का? आप चला लेते हैं या नहीं चला लेते? फिर आप लड़ो तो वह भी चला लेगी, फिर क्या करे वह? दोनों 'मजिस्ट्रेट'!