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________________ १६४ आप्तवाणी-५ प्रगति करना चाहते हो, उनका आधार लेना पड़ेगा, अवलंबन लेना पड़ेगा, तो आगे काम बढ़ेगा। प्रश्नकर्ता : शिव की पहचान क्या है? शिव कहाँ पर है? दादाश्री : जो कल्याण स्वरूप हो चुके हों, वे पुरुष शिव कहलाते हैं प्रश्नकर्ता : निर्विचार और निर्विकल्प, उन दोनों में क्या फर्क है? दादाश्री : बहुत फर्क है। निर्विचार अर्थात् विचार रहितता और निर्विकल्प अर्थात् विकल्प रहितता। विचार खत्म हो गए यानी शून्य हो गया। विचारशून्य साधु बन जाते हैं, कुछ लोग ऐसे भी बन जाते हैं। विचार करना बंद कर देता है, फिर विचारों पर ध्यान नहीं देता, इसलिए फिर दिनोंदिन विचारशून्य अर्थात् पत्थर जैसा होता जाता है। ऐसे ऊपर से सुंदर दिखता है, शांतमूर्ति लगता है, परन्तु भीतर ज्ञान नहीं होता! प्रश्नकर्ता : निर्विकल्प का अर्थ कुछ लोग निर्विचार बताते हैं। दादाश्री : 'ज्ञानी' के अलावा निर्विकल्प कोई होता ही नहीं। निर्विचारी कई हो सकते हैं। विचारशून्यता में से फिर वापिस उसे विचार की भूमिका उत्पन्न करनी पड़ेगी। मन विचार करना बंद कर दे, तो सबकुछ 'स्टेन्डस्टिल' (थमना) हो जाएगा। इसलिए कृपालुदेव ने ऐसा कहा है कि, 'कर विचार तो प्राप्त कर।' अर्थात् विचार की तो ठेठ तक ज़रूरत पड़ेगी और 'प्राप्ति के बाद विचार की ज़रूरत नहीं है फिर। फिर विचार ज्ञेय बन जाते हैं और खुद ज्ञाता बनता है। प्रश्नकर्ता : महावीर स्वामी ने अंतिम देशना दी, तो उस समय भी उन्हें विचार तो थे ही, ऐसा अर्थ हुआ न? दादाश्री : भगवान महावीर को भी ठेठ तक विचार थे। परन्तु उनके विचार कैसे थे कि प्रत्येक समय पर एक विचार आए और जाए। उसे निर्विचार कहा जा सकता है। हम विवाहस्थल पर खड़े हों तब सभी लोग नमस्कार करने आते हैं न! नमस्कार करके आगे चलने लगते हैं। अर्थात्
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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