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________________ आप्तवाणी-५ १५९ अर्थ सांसारिक स्वार्थ में परिणामित हो, वह अधर्म और आत्मिक स्वार्थ में परिणामित हो, वह धर्म कहलाता है। वैसा ही सकाम और निष्काम का है। प्रश्नकर्ता : धर्म के बिना कोई जीव रह सकता है क्या? दादाश्री : कोई जीव धर्म से बाहर होता ही नहीं है। धर्म में होता है या फिर अधर्म में होता है, उसके सिवाय नहीं होता है। प्रश्नकर्ता : कुछ ईश्वर को नहीं मानते हैं न? दादाश्री : इस जगत् में ईश्वर को नहीं माननेवालों को हमें नास्तिक नहीं कहना है। उन्हें नास्तिक कहना भयंकर गुनाह है। उसका क्या कारण है? जिसे 'मैं हूँ' ऐसा स्वयं के अस्तित्व का भान है, वे आस्तिक कहलाते हैं और धर्म सब अलग-अलग प्रकार के होते हैं। कोई नीति का प्रमाण मानता है, कोई सत्य का प्रमाण मानता है, कोई मनुष्यों को बचाने का प्रमाण मानता है, वह भी एक धर्म का चरण ही है। मंदिर बनवाने का नाम ही धर्म नहीं है। जो पूर्णतः नीतिपरायण है वह कभी भी मंदिर में दर्शन करने नहीं जाए तो भी चलेगा। उसे दूसरी किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। प्रामाणिकता तो धर्म का सबसे बड़ा साधन है। प्रामाणिकता और नीति जैसा बड़ा और कोई धर्मसाधन है ही नहीं। यह तो नीति, प्रामाणिकता जैसा कुछ नहीं रहता, इसलिए फिर खुद धर्म में जाकर, मंदिर में जाकर, 'हे प्रभु! मैं कपड़ा खींचकर बेचता हूँ, परन्तु मुझे माफ़ करना' ऐसा कहता है। ये व्यापारी कपड़ा बेचते समय खींचते हैं, वे किसलिए खींचते हैं? मैं उन्हें पूछता हूँ कि भगवान की भक्ति करते हो और यह कपड़ा किसलिए खींचते हो? तब वे कहते हैं कि सभी खींचते हैं, इसलिए मैं भी खींचता हूँ। मैंने कहा, 'सब तो कुएँ में गिरेंगे, तुम भी गिरोगे? तुम किसलिए खींचते हो?' तब व्यापारी कहता है, 'चालीस मीटर कपड़ा देते हैं, उसमें खींचखींचकर दें तो पाव मीटर बढ़ता है!' अरे, यह खींचने की कसरत किसलिए करता है? अरे, यह तो तू बार-बार रौद्रध्यान करता है! तेरी क्या दशा होगी? महावीर की सभा में बैठा हुआ मैंने तुझे देखा था। महावीर की सभा में
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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