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________________ १५८ आप्तवाणी-५ अर्थ फिर जिस स्वार्थ में ले जाता है, उस समय वह सकाम में परिणामित होता है और जब अर्थ परमार्थ में जाता है तब निष्काम में परिणामित होता है। वही का वही काम मोक्ष में ले जाता है और वही का वही काम संसार में भटकाता है। धर्म में भी वही का वही धर्म संसार में भटकाता है और वही का वही धर्म मोक्ष में ले जाता है। प्रश्नकर्ता : धर्म की परिभाषा क्या है? दादाश्री : इस संसार में भटकाए वह शुभ धर्म है और मोक्ष में ले जाए वह शुद्ध धर्म है। धर्म का नाम क्यों पड़ा? तब कहे कि अधर्म था इसलिए धर्म नाम पड़ा। अर्थात् यह धर्माधर्म है। संसार के धर्मिष्ठ पुरुष क्या करते हैं? अधर्म के विचार आएँ, उन्हें पूरा दिन धक्के मारते रहते हैं। अधर्म को धक्का मारना, उसे धर्म कहा है। प्रश्नकर्ता : धर्म का पालन करे तो अधर्म ओटोमेटिकली निकल जाएगा न? दादाश्री : धर्म दो प्रकार के हैं। एक स्वाभाविक धर्म और दूसरा विशेष धर्म। जब शुद्धात्मा प्राप्त होता है तब स्वाभाविक धर्म में आते हैं। स्वाभाविक धर्म ही सच्चा धर्म है। उस धर्म में कुछ भी 'बीनना' है ही नहीं। विशेष धर्म में सारा ही 'बीनना' है। लौकिक धर्म किसे कहते हैं? दान देना, लोगों पर उपकार करना, ओब्लाइजिंग नेचर रखना, लोगों की सेवा करनी, उन सभी को धर्म कहा है। उनसे पुण्य बँधते हैं। और गालियाँ देने से, मारपीट करने से, लूट लेने से, पाप बँधते हैं। पुण्य और पाप जहाँ है, वहाँ सच्चा धर्म है ही नहीं। सच्चा धर्म पुण्य-पाप से रहित है। जहाँ पुण्य-पाप को हेय माना जाता है और उपादेय खुद के स्वरूप को माना जाता है, वह रियल धर्म है। अर्थात् ये रियल और रिलेटिव, दोनों धर्म अलग हैं।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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