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________________ १५६ आप्तवाणी-५ शुद्ध उपयोग में रहे कि संवर सहित निर्जरा होती ही रहेगी। प्रश्नकर्ता : उसका अर्थ ऐसा हुआ कि जितना अधिक शुद्ध उपयोग में रहो, उतनी अधिक निर्जरा होगी? दादाश्री : शुद्ध उपयोग ही काम करेगा। आपका धर्म शुद्ध उपयोग है। वह जितना चूकोगे उतनी आपको मार पड़ेगी। और हमने जो पाँच आज्ञाएँ दी हैं, वे शुद्ध उपयोग में रखने के हेतु के लिए ही है। पाँच आज्ञा पाली, वही शुद्ध उपयोग है। उसमें से एक पाली, फिर भी वह शुद्ध उपयोग ही है। पाँच में से एक आपसे नहीं पाली जाएगी? प्रश्नकर्ता : दादा, इसमें ऐसा है न कि एक पालो न तो पाँचों पल जाती है। दादाश्री : वह तो बल्कि अच्छा है न? एक पाली तो पाँचों का लाभ मिलता है। यह तो बहुत आसान और सरल है। कुछ भी मुश्किल नहीं है। सिर पर कोई डाँटनेवाला नहीं है। नहीं तो सिर पर गुरु महाराज हों, वे तो तेल निकाल डालें! सुबह उठे तब से हमें डाँटते रहेंगे! कर्म का आयोजन - क्रिया या ध्यान? प्रश्नकर्ता : अभी जो भोगते हैं उसमें आपका कहना है कि आयोजन है। उनमें क्रियमाण भी होते हैं और संचित भी होते हैं, तो उस कर्म और कारण का आयोजन किस तरह समझें? दादाश्री : वह आयोजन अपनी क्रिया पर आधारित नहीं होता। अपने ध्यान पर आधारित है। आप नगीनभाई के दबाव से पाँच हज़ार रुपये धर्मदान में दो तो आप देते ज़रूर हो, परन्तु आपका ध्यान वास्तविक नहीं था। प्रश्नकर्ता : बहुत इच्छा नहीं थी। दादाश्री : नहीं, इच्छा नहीं थी, ऐसा नहीं है। इच्छा की ज़रूरत ही नहीं है। इच्छा से कर्म नहीं बँधते, ध्यान पर आधारित है। इच्छा तो
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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