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________________ आप्तवाणी-५ १३३ मनुष्य से यदि हो सकता तो इन सभी शत्रुओं को मारकर मित्रों को ही रखता। फिर भी बिना शत्रु की भूमि नहीं हो सकेगी। उन मित्रों में से ही फिर से शत्रु खड़े होंगे। इसके बदले तो यदि उन शत्रुओं को रहने दिया होता न तो वे मित्र शत्रु बनते तब वे शत्रु मित्र बन गए होते! तब वे काम आते! मारने जैसा यह जगत् नहीं है। कोई भी वस्तु शाश्वत नहीं होती। आप पक्का मत कर लेना कि यह हमेशा के लिए मेरा दुश्मन है। प्रश्नकर्ता : 'नमो अरिहंताणं' में जो बोलते हैं और आपने जो शत्रु और मित्र की बात की, वह क्या है? दादाश्री : अरिहंतवाली बात तो, आंतरशत्रुओं के लिए है। आंतरशत्रु अर्थात् क्रोध-मान-माया-लोभ का जिन्होंने हनन कर दिया है, वैसे अरिहंत भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। स्वाभाविक होने में नैमित्तिक कारण होते हैं। आंतरशत्रुओं को पहचानो कि ये अपने विरोधी हैं, ये शत्रु हैं। मारना किसीको भी नहीं है। शत्रु पर द्वेष नहीं रखना है, तो अब इन शत्रुओं को मैंने बुलाया है या शत्रुओं के बुलाने से मैं आया हूँ, उसकी जाँच करो। फिर शत्रु किस तरह से जाएँ, उनसे मुक्त किस तरह से हुआ जाए, उसकी जाँच करो। साधना, साध्यभाव से-साधनभाव से प्रश्नकर्ता : शत्रुओं का हनन करने के लिए जो साधना करने की आदत पड़ चुकी है, उससे उनका हनन हो जाएगा? दादाश्री : ऐसा है न, साधना दो प्रकार की है : (१) साधना, साध्यभाव के लिए ही करनी, वह। (२) साधना, साधना के लिए करनी, वह। साध्यभाव से साधना, वह अंतिम साधना कहलाती है और वह कुछ हद तक मनुष्य अपने आप कर सकता है। ये बेहद के साधन नहीं हैं।
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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