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________________ आप्तवाणी-५ में पड़े हों, फिर भी ऐसा होता है कि मेरा शरीर चला जाएगा, फिर ये बच्चे क्या करेंगे? यह सब बुरी आदत है एक प्रकार की । 'व्यवस्थित' करनेवाला है। आप देखोगे तभी तक उसे पकड़कर रखोगे न ! और आपकी दृष्टि से बाहर चला जाए तब ? इसलिए हमें पूछे उसका ही जवाब | बेटे को अनुभव हो या नहीं हो, वह हमें नहीं देखना है । व्यापार कर रहा हो, तब कभी मन ऐसा भी कहता है कि चलो, आज ज़रा ग्राहक ज़्यादा हैं तो बेटा धोखा खा जाएगा। इसलिए चलो, मैं दुकान पर जाकर बैठूं ! ऐसी पीड़ा में हम कहाँ पड़ें? हमने बेटों को बड़ा किया, पढ़ाया, शादी करवाई, फिर अब क्या लेना-देना? हमें अपने आत्मा का करना है। अब 'सब सबकी सँभालो' ऐसा नियम है। ये ग्राहक - व्यापारी के संबंध हैं। पहले अज्ञानता के कारण गहरे उतर गए थे। अब हमें 'ज्ञान' से समझ में आ जाना चाहिए। १२६ अक्रम मार्ग से अकषायावस्था जिसने कषायभाव को जीता, वह अरिहंत कहलाया! जहाँ 'मैं शुद्धात्मा हूँ' है, वहाँ कषायभाव नहीं रहते । जहाँ शुद्ध उपयोग हो, वहाँ पर कषायभाव नहीं रहते। जहाँ शुद्धात्मा है वहाँ कषाय नहीं हैं और जहाँ कषाय हैं, वहाँ शुद्धात्मा नहीं है । 'अक्रम ज्ञान' में कषाय होते ही नहीं । क्रमिक मार्ग में ऐसा है कि अशाता वेदनीय हो तो कर्म बँधे बगैर रहते ही नहीं । जब कि ‘अक्रम' में उसमें कर्म नहीं बँधते परन्तु उतने समय तक वेदना भोगनी ही पड़ती है। प्रश्नकर्ता : यह 'अक्रम ज्ञान' की महत्ता है न? दादाश्री : बहुत बड़ी महत्ता है ! गज़ब का विकास है यह! नहीं तो एक अंश भी कषाय कम नहीं होते। सत्संग की आवश्यकता जीव अव्यवहार राशि में से व्यवहार राशि में आया तो मोक्ष में जाने तक 'व्यवस्थित' है। झंझट नहीं करे तो 'व्यवस्थित' मोक्ष में ही ले जाए,
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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