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आप्तवाणी-५
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शास्त्रों में जानने गया, वह ज्ञान क्रियाकारी नहीं है, और यह समझ क्रियाकारी है। आपको कुछ भी नहीं करना पड़ता। अंदर से 'ज्ञान' ही करता रहता है। क्रियाकारी ज्ञान, वह चेतनवंत 'ज्ञान' है, वही विज्ञान है, वही परमात्मज्ञान कहलाता है । शुष्कज्ञान को बाँझ ज्ञान कहा जाता है। पपीता नहीं लगता, और मेहनत उतनी ही ! पूरा मनुष्यत्व बेकार चला जाता है, इसलिए कुछ समझना तो पड़ेगा ही न? यहाँ पर सिर्फ 'समझना' ही है, 'करना' कुछ भी नहीं है। जहाँ 'करना' है, वहाँ मोक्ष का मार्ग नहीं है । जहाँ 'समझना' है, वही मोक्ष का मार्ग है ।
जो 'समझ' ज्ञान में परिणामित हो जाएगी, उस दिन वह चीज़ (दोष) आपके पास नहीं होगी । आपको कुछ भी नहीं करना है । ग्रहण - त्याग के हमलोग अधिकारी ही नहीं, क्योंकि यह मोक्षमार्ग है । ग्रहण - त्याग के अधिकारी, शुभाशुभ मार्ग में होते हैं, भ्रांतिमार्ग में होते हैं, यह तो क्लियर मोक्षमार्ग है।
जब वही 'समझ' ज्ञान के रूप में परिणामित होगी, तब वर्तन में आएगी। दादा ने जो समझ दी है, वह समझ ही अनुभव करवाती रहेगी । ऐसे करते-करते, अनुभवज्ञान होते-होते ज्ञान के रूप में वह परिणामित होगी, उस दिन वह 'चीज़' (दोष) नहीं रहेगी।
मोक्षमार्ग आसान है, सरल है और सुगम है। समभावी मार्ग है, कुछ भी मेहनत किए बगैर चले ऐसा है । इसलिए काम निकाल लो। अनंत जन्मों तक फिर यह योग बैठे ऐसा नहीं है ।
ज्ञान दी जा सके ऐसी चीज़ नहीं है। ज्ञान तो, जो समझ देते हैं उसमें से उत्पन्न होता है। ज्ञान उत्पन्न हुआ वह कब समझ में आता है ? 'यह गलत है' वह ज्ञान कब कहलाएगा? अपने आप वह चीज़ (दोष) छूट जाए तब। छूट जाना और ज्ञान होना, दोनों साथ में होता है । तब तक समझ में तो है कि यह नहीं होना चाहिए, नहीं होना चाहिए अर्थात् अपना यह 'केवळदर्शन' यानी कि केवळ-समझ का विज्ञान है । बाद में फिर केवळज्ञान में आता है।