________________
१०६
आप्तवाणी-५
प्रश्नकर्ता : तो दादा, उसे पकड़वाने के लिए क्या करना चाहिए?
दादाश्री : वह हम कर देते हैं। हम 'ज्ञान' देते हैं, उसी दिन आपका आत्मा जागृत कर देते हैं, उससे मन इस ओर मुड़ जाता है।
शंका का उद्भवस्थान
व्यवहार में जो शंका होती है, वह मन का काम है। वे मन के गुण हैं। उसमें मन और बुद्धि दोनों मिल जाते हैं, तब तरह-तरह के बवंडर उठते हैं। जैसे हवा के बवंडर उठते हैं न, चक्रवात चलते हैं न, वैसे ही यह 'सायक्लोन' (चक्रवात) अंदर चलता है।
प्रश्नकर्ता : उसमें बुद्धि का क्या होता है?
दादाश्री : हाँ, बुद्धि है न। मन स्वीकृति दे तब बुद्धि कहेगी, 'नहीं, ऐसा है।' इसलिए फिर शंका होती है। यानी कि भीतर पार्लियामेन्ट है। आत्मा में कोई निःशंक नहीं हुआ है, आत्मा में नि:शंक हो जाए तो लक्ष्य बैठ जाए।
प्रश्नकर्ता : मोक्ष होने के लिए संपूर्ण नि:शंक होने की ज़रूरत है?
दादाश्री : आत्मा में निःशंक होना पड़ता है, परन्तु आत्मा क्या होता होगा? इन लोगों का माना हुआ आत्मा बुद्धि में समाए ऐसा नहीं है। लोगों के पास बुद्धि है और बुद्धि में समाया हुआ रहे, आत्मा वैसा नहीं है, परन्तु वह अमाप्य है। जहाँ मेजर (नाप) नहीं है, तौलनाप नहीं है, वैसा आत्मा 'ज्ञान' से जाना जा सकता है। वह भी, ज्ञानी के 'ज्ञान' से आत्मा का लक्ष्य बैठता है, नहीं तो लक्ष्य में नहीं आता।
प्रश्नकर्ता : 'कोन्शियस माइन्ड' किसे कहते हैं? वह मन है?
दादाश्री : वह मन को नहीं कहते, वह चित्त को कहते हैं। सही मन जो है, वह तो आत्मा के सानिध्य के कारण उत्पन्न होता है, जिसे अपने लोग भाव कहते हैं।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के साथ उसका संबंध किस प्रकार का है?