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________________ आप्तवाणी-५ दादाश्री : बहुत फर्क है। परम विनय तो मनुष्य में उत्पन्न ही नहीं होता। आत्मा प्राप्त करने के बाद ही परम विनय रहता है और उसके कारण जुदाई लगती ही नहीं। अभेद दृष्टि हो जाती है, अभेद बुद्धि हो जाती है, और जब तक विनय है तब तक मैं और गुरु महाराज दोनों अलग ही हैं। फिर भी वह विनय ‘परम विनय' में ले जाता है । वह भी एक स्टेशन है। ९८ 'ज्ञानी पुरुष' आपके अविनय की नोंध ( अत्यंत राग अथवा द्वेष सहित लम्बे समय तक याद रखना, नोट करना) नहीं करते हैं । आपको समझ लेना है कि मुझे कैसा विनय करना है और कैसा नहीं ? और आपकी भूल हो सकती है, ऐसा हम जानते हैं और इस दुषमकाल में अविनय की तो नोंध ही नहीं कर सकते न? चौथे आरे में अविनय की नोंध करनी पड़ती है। अभी तो लेट गो करना पड़ता है। बल्कि, अविनय करे उसे आशीर्वाद देना पड़ता है ! मिथ्याभास मिथ्याभास अर्थात् क्या? एक बड़े फंक्शन में बड़े-बड़े मंत्री आए थे। वहाँ मंच पर सब बैठे हुए थे, तब मुझे भी मंच पर उनके पास बैठाया था। मुझे जब ‘ज्ञान' नहीं हुआ था, तब मन में ऐसी भावना होती थी कि यहाँ के बजाय ऐसी जगह पर बैठने को मिले तो अच्छा। उन दिनों मेरे लिए उसकी क़ीमत थी और अभी मंच पर बैठाए तो बोझा लगता रहता है, वह मिथ्याभास। प्रश्नकर्ता : परन्तु दादा, आपको दुःखदायी या बोझेवाला नहीं लगता न? दादाश्री : नहीं, वैसे बोझेवाला नहीं लगता । परन्तु उसमें इन्टरेस्ट नहीं होता है। अर्थात् मुक्त जैसा होता है। हमें अब कहीं भी इन्टरेस्ट नहीं रहता । प्रश्नकर्ता : धीरे-धीरे हमें भी इन्टरेस्ट कम होता जा रहा है, फिर जीएँ किस तरह?
SR No.030016
Book TitleAptavani Shreni 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2011
Total Pages216
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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