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________________ ४६ आप्तवाणी-३ प्रश्नकर्ता : 'शुद्धात्मा, वह निजपरिणति नहीं है, ज्ञान, वह निजपरिणति है', यह समझाइए। दादाश्री : शुद्धात्मा, वह निजपरिणति नहीं है। शुद्धात्मा तो संज्ञा है। हमने जो ज्ञान आपको दिया है वह ज्ञान, और वह ज्ञान जब उपयोग में आता है तो वह निजपरिणति में आता है। प्रश्नकर्ता : आपकी पाँच आज्ञाओं में से एक आज्ञा में रहे तो निजपरिणति कहलाएगी या नहीं? दादाश्री : हाँ, वह निजपरिणति कहलाएगी। हमारी आज्ञा निजपरिणति में रहने के लिए ही है, उनमें दूसरी कोई परिणति नहीं है। प्रश्नकर्ता : दादा भगवान के दर्शन करने के भाव होते हैं, वह भाव स्वभाव में माना जाएगा क्या? दादाश्री : वे स्वभाव में लानेवाले परिणाम हैं। वे परपरिणाम हैं। लेकिन स्वभाव में लानेवाले हैं, अतः हितकारी कहे जाते हैं। स्वपरिणति के अलावा बाकी सारी ही पुद्गल परिणति है। जब तक किंचित् मात्र किसीका आलंबन है, तब तक परपरिणति है। जब तक मूर्ति, गुरु, शास्त्रों का, त्याग का आलंबन है, तब तक परपरिणति है और शुद्धात्मा का अवलंबन स्वपरिणति है। ... किस प्रकार से स्वपरिणति में बर्ते ! प्रश्नकर्ता : ऐसा जानता है कि यह टेम्परेरी है, फिर भी परमानेन्ट को पहचानने में भूल कौन करवा देता है? दादाश्री : जो 'टेम्परेरी' को 'परमानेन्ट' मानता है, वह ! 'स्वरूप ज्ञान' होने के बाद 'डिस्चार्ज' भाव को खुद के भाव मानता है। वह भूल है, वह पिछला रिएक्शन है। डिस्चार्ज भाव को खुद का भाव माने, वह परपरिणति है। 'ज्ञानीपुरुष' एक भी डिस्चार्ज भाव को खुद का नहीं मानते हैं, इसलिए निरंतर स्वपरिणति में रहते हैं। यह जो समझ में नहीं आता है, वह जागृति की मंदता है। ज्ञानीपुरुष'
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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