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________________ आप्तवाणी -३ ४५ I सुबह से उठे, तभी से पुद्गल, उसके परिणाम में होता है और आत्मा उसके परिणाम में होता है । लेकिन यदि कभी मन अधिक स्पदंन कर रहा हो और ऐसा कहे कि, 'मुझे ऐसा क्यों हो रहा है?' तो फिर वापस वह भूत चिपटा! अतः 'हमें' उसे देखते रहना है और जानना है कि अभी तूफान ज़रा अधिक है । ६५ मील की स्पीड से हवा चले तो क्या घरबार छोड़कर भाग जाएँगे? वह तो चलती ही रहेगी। मोक्षमार्ग में जाते हुए तो बहुत-बहुत चक्रवात आएँगे, लेकिन वे बाधक नहीं है I जिसे ये बाहर के परपरिणाम पसंद नहीं हैं, यूजलेस लगते हैं और उन्हें वह खुद के परिणाम नहीं मानता है, वही आत्मा की हाज़िरी है । वही स्वपरिणाम है। वह भेदविज्ञान तो ज्ञानी ही प्राप्त करवाते हैं दोनों द्रव्य निज-निज रूप में स्थित होते हैं । पुद्गल, पुद्गल के रूप में परिणमित होता रहता है और चेतन, चेतन के परिणाम की भजना करता रहता है। दोनों ही अपने-अपने स्वभाव को छोड़ते नहीं हैं, वह तो जब ‘ज्ञानीपुरुष' उन्हें अलग कर दें, उसके बाद ही ! जब तक अलग नहीं हो जाएँ, तब तक अनंत काल तक भटकते रहेंगे, फिर भी कुछ ठिकाना नहीं पड़ेगा। यह भेदविज्ञान है । जगत् के तमाम शास्त्रों से भी बड़ा विज्ञान, यह भेदविज्ञान है। शास्त्रों में तो क्या है कि यह करो और वह करो, ऐसे सभी क्रियाएँ, कर्मकांड लिखे हुए हैं। लेकिन भेदविज्ञान तो अलग ही चीज़ है। वह शास्त्रों में नहीं मिलता। वह तो 'ज्ञानीपुरुष' की कृपा से ही प्राप्त हो सकता है, ऐसा है । जिसे स्वपरिणति रहती हो, परपरिणति नहीं रहती हो और जो देहधारी हों, वे सद्गुरु कहलाते हैं । निजपरिणति कब कहलाए एक क्षण के लिए भी स्वपरिणति उत्पन्न हो जाए, तो उसे समयसार कहा है। एक समय के लिए भी जिसे समयसार उत्पन्न हो गया, उसमें वह हमेशा के लिए रहता ही है ।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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