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________________ मेरी' कहता रहे तो लपेट खुलेंगी! संसार में सभी के साथ 'लटकती सलाम' करके मोक्ष में चले जाने जैसा है। 'ज्ञानी' सभी व्यवहार करते हैं, लेकिन आत्मा में रहकर। अपने यहाँ की भारतीय नारी के संस्कार तो देखो! पूरी ज़िन्दगी बूढ़ा बुढ़िया से झगड़ता हैं, मारता है और अस्सी वर्ष की उम्र में बूढ़ा चल बसे तब बुढिया तेरही का दान करती है और 'तुम्हारे चाचा को यह भाता था, यह भाता था' करके चारपाई पर रखती है! और 'हर जन्म में ऐसे ही पति मिलें' कहती है!! __ जो संसार निभाएँ, वे आदर्श पति-पत्नी! ये तो विषयासक्ति से संसार चलाते हैं। प्रेम से नहीं। जहाँ पर प्रेम हो वहाँ सामनेवाला चाहे कुछ भी करे, गालियाँ दे, मारे तब भी प्रेम नहीं जाता। प्रेम में समर्पण होता है, बलिदान होता है, पोतापणुं (मैं हूँ और मेरा है-ऐसा आरोपण, मेरापन) नहीं होता। पति-पत्नी के बीच में सुमेल रखने के लिए मन में सैंकड़ों प्रतिक्रमण रोज़ करते जाओ तो यह भव और परभव दोनों ही सुधर जाएँगे। काम धंधे की कमाई को खर्च करनेवाले कितने हैं? और काम की चिंता, उपाधि करनेवाले कितने हैं? खुद अकेला!!! सुख में सभी हिस्सेदार और दुःख के.......? जिस धंधे में नुकसान हुआ, वही धंधा कमाकर देता है। क़र्ज़दार को एक ही भाव रखना चाहिए की जल्दी से जल्दी से रुपये दूध से धोकर चुका देने हैं! उससे ज़रूर चुकाए जाएंगे। जिसकी दानत ख़राब हो उसका बिगड़ता है। 'व्यवस्थित' ग्राहक को भेजता है। ग्राहक की चिंता नहीं करनी चाहिए, वैसे ही अधिक कमाई को लालच में जल्दी दुकान खोलने से कुछ फ़ायदा हो जाएगा, ऐसा नहीं है। ग्राहक का इन्तज़ार करना, अंदर चिढ़ना, किसीसे छीन लेने का भाव रखना, वह सब आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहलाता है। 40
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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