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खंड : २ जगत् का कोई स्वतंत्र कर्ता नहीं है। कोई बाप भी ऊपरी नहीं है, भगवान भी नहीं। जो शक्ति जगत् को चलाती है, वह 'मिकेनिकल एडजस्टमेन्ट' है, कम्प्युटर जैसा है और 'साइन्टिफिक सरकमस्टेन्शियल एविडन्स' से हैं। लेकिन अज्ञानता से ऐसा माना जाता है कि खुद चलाता है या भगवान चलाते हैं। स्वरूप का भान होने के बाद में फिर खुद इन सभी से मुक्त हो जाता है। मोक्ष के पंथ पर प्रयाण करते-करते जीवन जीने की कला की कुशलता भी अनिवार्य हो जाती है। सिर्फ 'अक्रम विज्ञान' ही ऐसा है कि जहाँ पर संसार की सभी ज़िम्मेदारियाँ संपूर्ण, आदर्शमय रूप से अदा करते-करते सहजता से मोक्षमार्ग पूरा किया जा सकता है। अक्रममार्ग में त्याग का नहीं लेकिन 'समभाव से निकाल' का जीवनसूत्र अपनाना होता है। और इसके लिए तमाम प्रकार की बोधकला और ज्ञानकला अक्रमविज्ञानी श्री दादा भगवान' के श्रीमुख से निकली है। संसार के क्लेशों का विलय करानेवाली यह वाणी, आत्मजागृति को प्रकट करनेवाली वाणी जितनी ही क्रियाकारी सिद्ध होती है। क्योंकि अंत में तो व्यवहार ही शुद्ध करना है न! संसार में पति-पत्नी के बीच में, माँ-बाप बच्चों के बीच में, गुरु-शिष्य के बीच में, अड़ोसी-पड़ोसी, नौकर-सेठ, व्यापारी-ग्राहक के बीच में होनेवाले तमाम प्रकार के घर्षणों का अंत लाने की चाबी पूज्यश्री हँसते-हँसाते कह देते हैं, इस अद्भुत अनुभवपूर्वक के व्यवहार-दर्शन का लाभ उठाकर धरती पर स्वर्ग उतारा जा सके, ऐसा है!
जीवन जीने का हेतु क्या है? नाम करना है? नाम तो जब अर्थी निकले. उसी दिन वापस ले लिया जाता है। साथ में क्या जाएगा? मोक्ष के लिए धर्म बाद में करना, लेकिन पहले जीवन जीने की कला जानना ज़रूरी है। इन्जन चले लेकिन कुछ उत्पादन नहीं करे, उसका क्या करना? मोक्षप्राप्ति-वह तो मनुष्यपन का सार है! वकील बने, डॉक्टर बने उससे क्या जीवन जीने की कला आ गई? उसके कलाधार मिल जाए तो वह कला सीखी जा सकती है। जीवन जीने की कला सीख जाए तो जीवन सरलता से चलेगा। जिसे जीवन जीने की कला आ गई, उसे सारा व्यवहार, धर्म आ गया। 'अक्रम विज्ञान' व्यवहार धर्म और निश्चय धर्म दोनों ही
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