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________________ आत्मज्ञान के बाद सर्व प्रथम तो सब तरफ से उदासीनता और फिर वीतरागता प्राप्त होती है। उदासीनता तो वीतरागता की जननी है। उदासीनता अर्थात् रुचि भी नहीं और अरुचि भी नहीं। वीतरागता अर्थात् रागद्वेष से परे। "प्रतिष्ठित आत्मा-वह जगत् का अधिष्ठान है।" - दादा भगवान 'मैं चंदूलाल हूँ, यह मेरी देह है, मन मेरा है' ऐसी प्रतिष्ठा करने से नया प्रतिष्ठित आत्मा उत्पन्न होता है। इसका मूल कारण अज्ञान है। प्रतिष्ठित आत्मा है तो पुद्गल, लेकिन चेतनभाव को प्राप्त किए हुए है, मिश्रचेतन है। क्रोध-मान-माया-लोभ की प्रतिष्ठा प्रतिष्ठित आत्मा में हो चुकी है। वह फल देती रहती है। जो शुभाशुभ भाव करता है, वह व्यवहार आत्मा कहलाता है। स्वरूपज्ञान से पहले तो प्रतिष्ठित आत्मा कहा ही नहीं जा सकता। स्वरूपज्ञान के बाद जो बाकी बचता है, वह प्रतिष्ठित आत्मा है। मूल आत्मा में भावाभाव नहीं होते। उसकी उपस्थिति से भावाभाव उत्पन्न होते हैं। जो अचल आत्मा है, वही 'दादा भगवान' हैं । जो चंचल है, वह सारा मिकेनिकल भाग है। जो ज्ञान के वाक्य बोलें, वे व्यवहार में ज्ञानी और जो भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं । 'ज्ञानीपरुष' खुद भी भीतरवाले 'दादा भगवान' को नमस्कार करते हैं । अमुक समय पर 'दादा भगवान' के साथ अभेद रहते हैं, तन्मय रहते हैं और वाणी बोलते समय भीतर भगवान जुदा होते हैं, और खुद जुदा, अद्भुत दशा है ज्ञानीपुरुष की! 30
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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