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जिस तरह लिफ्ट में रहनेवाला व्यक्ति और लिफ्ट दोनों भिन्न हैं। उसी प्रकार आत्मा और देह बिल्कुल भिन्न ही हैं। कार्य तो सारा लिफ्ट कर लेती है, और खुद को तो बटन ही दबाना होता है। उसी प्रकार जिसे भौतिक की वांछना है उसे अहंकार का बटन दबाना चाहिए
और जिसे केवल मोक्ष की ही इच्छा है, उसे आत्मा भाव से बटन दबाना है।
जो स्वसत्ता में आ जाए, पुरुष बनकर पुरुषार्थ में आए-वह भगवान। जो प्रकृति की सत्ता में खेलता है-वह जीव है।
आत्मा ने दैहिक रूप धारण किया ही नहीं है। सिर्फ 'बिलीफ़' ही उल्टी बैठ गई है।
मोक्ष न तो देह का होता है, न ही आत्मा का होता है। मोक्ष तो होता है, अहंकार का अहंकार की दृष्टि बदलने से 'जो नहीं है उसे मैं हूँ' मान बैठता है।
'मैं हूँ' कहता है, इस वजह से खुद आत्मा से जुदा पड़ जाता है। वह अज्ञान जाएगा तो अभेदस्वरूप हो जाएगा। खुद की जितनी भूले दिखेंगी, उतना अहंकार जाएगा।
जीवमात्र में सूझ होती ही है। सूझ-वह कुदरती देन है। जब आवरण आता है तब सूझ नहीं पड़ती, आवरण हटते ही सूझ पड़ जाती है। एकाग्रता हुई कि झट से सूझ पड़ जाती है। सूझ को जगत् पुरुषार्थ मानता है, भ्रांति से! हर एक की सूझ पर से पता चल जाता है कि यह समसरण मार्ग के कितने मील पर है ! मनुष्य में सिर्फ सूझ ही एक वस्तु 'डिस्चार्ज' नहीं है, बाकी सबकुछ ही 'डिस्चार्ज' है। सूझ को दर्शन कहते हैं। समसरण मार्ग में सूझ बढ़ते-बढ़ते अंत में 'मैं शुद्धात्मा हूँ', ऐसी सूझ पड़ी कि दर्शन निरावरण हो जाता है।
अहंकार के कारण सूझ का लाभ नहीं उठा पाते, वर्ना सूझ तो हर एक को पड़ती ही रहती है। जैसे-जैसे अहंकार कम होता जाता है, वैसेवैसे सूझ बढ़ती जाती है।
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