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________________ “इस जगत् में जो कुछ भी किया जाता है, वह जगत् को सा या नहीं पुसाए फिर भी मैं कुछ भी नहीं करता हूँ, ऐसा सतत ख़्याल में रहना-वह केवलदर्शन है । ऐसी समझ रहना - वह केवलज्ञान है ! " - दादा भगवान मन-वचन-काया की तमाम संगी क्रियाओं में शुद्ध चेतन बिल्कुल असंग ही है। - दादा भगवान " मन-वचन-काया के जो तमाम लेपायमान भाव आते हैं, उनसे 'शुद्ध चेतन' सर्वथा निर्लेप ही है ।" - दादा भगवान मन में जो भाव, विचार आते हैं-वे, वचन और काया - वे सभी अज्ञानदशा के स्पंदन हैं, ज्ञानदशा के कोई स्पदंन नहीं होते । स्वरूपज्ञान के बाद मन के जो भाव उठते हैं, वे लेपायमान करने जाते हैं, वहाँ पर यदि जागृति रहे कि यह 'मेरा स्वरूप नहीं है, इनसे मैं मुक्त ही हूँ' तभी निर्लेप रहा जा सकता है I “मन-वचन-काया की आदतें और उनके स्वभाव को 'शुद्ध चेतन' जानता है और खुद के स्व-स्वभाव को भी वह जानता है। क्योंकि वह स्व पर प्रकाशक है । " - दादा भगवान मन की, वाणी की, काया की आदतों को खुद जानता है और आदतों के स्वभाव को भी खुद जानता है । आदतों का स्वभाव अर्थात् यह आदत मज़बूत है, यह कमज़ोर है, यह गाढ़ है, यह गहरी है, यह छिछली है, ऐसा सबकुछ ही वह खुद जानता है । आदतें मृत्यु पर्यंत नहीं जातीं, लेकिन आदतों का स्वभाव आत्मज्ञान के बाद धीरे-धीरे चला जाता है । " स्थूल संयोग, सूक्ष्म संयोग, वाणी के संयोग पर हैं और पराधीन हैं, और शुद्ध चेतन उनका ज्ञाता - दृष्टा मात्र है ।" - दादा भगवान अंदर के, मन के, बुद्धि के, चित्त के, अहंकार के संयोग, वे सभी सूक्ष्म संयोग हैं। वाणी के संयोग सूक्ष्म - स्थूल हैं और व्यवहार के संयोग स्थूल हैं। ये सभी संयोग पर हैं और पराधीन हैं। 27
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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