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________________ अंतिम देह से आत्मा जब मोक्ष जाने के लिए मुक्त होता है, तब उसका प्रकाश पूरे ब्रह्मांड में व्याप्त हो जाता है। ज्ञानभाव से व्याप्त होता है, उस अपेक्षा से सर्वव्यापक कहा है। सभी आत्मा स्वभाव से एक ही हैं, परन्तु अस्तित्व हर एक का स्वतंत्र है। आत्मा संसार की किसी भी चीज़ का कर्ता नहीं है। मात्र ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया का कर्ता है, अन्य कहीं भी उसकी सक्रियता नहीं है। हाँ, आत्मा की उपस्थिति से दूसरे तत्वों में सक्रियता उत्पन्न हो जाती है। ज्ञान + दर्शन अर्थात् चैतन्य। अनंतज्ञान, अनंतदर्शन आत्मा में होने से उसे चैतन्यघन कहा है। अनंत प्रदेशी आत्मा के प्रत्येक प्रदेश में ज्ञायक शक्ति है। ज्ञेय को ज्ञाता मानने से आत्मा प्रदेश कर्म-मल से ढक जाते हैं । आत्मा अकर्ता है, संसार की क्रिया का कर्ता आत्मा नहीं है। खुद की स्वाभाविक ज्ञानक्रिया का, दर्शनक्रिया का कर्ता है- इसके अलावा उसकी सक्रियता कहीं भी नहीं है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, इस तरह से मुख्य आठ कर्मरूपी आवरणों से आत्मप्रकाश ढका हुआ है। आत्मज्ञान होने के बाद वे आवरण टूटते जाते हैं, फलतः आनंद प्रकट होता जाता है। जीवमात्र आवरण सहित होता है। जिसके जितने प्रदेशों के आवरण खुले, उतना उसका प्रकाश बाहर आता है। "खुद खुद की पूरी ब्रह्मांड को प्रकाशमान करने की जो स्वसंवेदन शक्ति है, उसे केवलज्ञान कहा जाता है।" - दादा भगवान अज्ञानी दुःख को वेदता है। स्वरूपज्ञानी-आत्मा के अस्पष्ट वेदनवाले दुःख का ज्ञाता-दृष्टा रहने के प्रयत्न में रहता है। दुःख नहीं भोगता लेकिन बोझा लगता है उसे, और आत्मा के स्पष्ट वेदनवाले 'ज्ञानीपुरुष' दुःख को वेदते नहीं है, जानते हैं। 25
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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