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________________ चाहे जितना भी मिलाएँ फिर भी उन दोनों के परमाणु कभी भी एकाकार नहीं हो पाते। दोनों भिन्न-भिन्न ही रहते हैं-इनके जैसा ही आत्मा-अनात्मा के बारे में कहा जा सकता है! छहों तत्व मूल स्वरूप से टंकोत्कीर्ण स्वभाव के हैं! टंकोत्कीर्ण का यथार्थ अर्थ तो ज्ञानी ही कर सकते हैं! वीतरागों का यह ग़ज़ब का शब्द है! अव्याबाध स्वरूप से अर्थात् आत्मा का ऐसा गुण है कि जिसके कारण वह कभी भी किसी जीव को किंचित् मात्र भी दु:ख नहीं पहुँचा सकता! उसी प्रकार से उसे खुद को भी कभी भी दःख नहीं हो सकता!!! खुद से सामनेवाले को दुःख हो रहा है, वैसी थोड़ी-सी भी शंका पड़े, तो उसका प्रतिक्रमण करने की ज़रूरत है। दुःख, पीड़ा 'माने हुए आत्मा' को होता है, मूल आत्मा को नहीं। मूल आत्मा अव्याबाध स्वरूपी है। आत्मा अव्यय है, फिर भी भाजन के अनुसार उसका संकोच और विकास हो सके, वैसा है। आत्मा निरंजन निराकार है। फिर भी देहाकारी है, उसका खुद का स्वाभाविक आकार है। जब तक खुद के निराकार परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक जिस देह में परमात्मा प्रकट हो चुके हैं, ऐसे प्रत्यक्ष 'ज्ञानीपुरुष' की भजना करने से खुद का परमात्मापन प्रकट होता है। आत्मा अमूर्त है और मूर्ति के अंदर है। ज्ञानी, जिनमें अमूर्त भगवान व्यक्त हो चुके हैं, उन्हें मूर्तामूर्त भगवान कहा जाता है। आत्मा परम ज्योति स्वरूप है, आंतर-बाह्य सभी वस्तुओं को जानता है, वस्तु को वस्तु के रूप से और अवस्था को अवस्था के रूप से जानता है। आत्मा स्व-पर प्रकाशक अर्थात् खुद खुद को ही प्रकाशित करता है और अन्य तत्वों को भी जानता है। आत्मा को सुगंध-दुर्गंध स्पर्श नहीं करती। जिस प्रकार प्रकाश को सुगंध या खाड़ी की गंध स्पर्श नहीं करती, वैसे! 24
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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