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________________ आप्तवाणी-३ १९३ सुबह में नाश्ता बिगड़े, दोपहर में नाश्ता बिगड़े, सारा दिन बिगड़ेगा। रिएक्शनरी प्रयत्न नहीं ही किए जाएँ प्रश्नकर्ता : दोपहर को वापस सुबह का टकराव भूल भी जाते हैं और शाम को वापस नया हो जाता है। दादाश्री : वह हम जानते हैं, टकराव किस शक्ति से होता है, वह टेढ़ा बोलती है उसमें कौन-सी शक्ति काम कर रही है। बोलकर वापस एडजस्ट हो जाते हैं। वह सब ज्ञान से समझ में आए ऐसा है, फिर भी एडजस्ट होना चाहिए जगत् में। क्योंकि हर एक वस्तु एन्डवाली होती है। और शायद वह लम्बे समय तक चले, फिर भी आप उसे हेल्प नहीं करते, अधिक नुकसान करते हो। अपने आपको नुकसान करते हो और सामनेवाले का भी नुकसान होता है! उसे कौन सुधार सकेगा? जो सधरा हुआ हो वही सुधार सकेगा। जिसका खुद का ही ठिकाना नहीं हो वह सामनेवाले को किस तरह सुधार सकेगा? प्रश्नकर्ता : हम सुधरे हुए हों तो सुधार सकेंगे न? दादाश्री : हाँ, सुधार सकोगे। प्रश्नकर्ता : सुधरे हुए की परिभाषा क्या है? दादाश्री : सामनेवाले मनुष्य को आप डाँट रहे हों तब भी उसे उसमें प्रेम दिखे। आप उलाहना दो, तब भी उसे आपमें प्रेम ही दिखे की अहोहो! मेरे फादर का मुझ पर कितना प्रेम है! उलाहना दो, परंतु प्रेम से दोगे तो सुधरेंगे। ये कॉलेज में यदि प्रोफेसर उलाहना देने जाएँ तो प्रोफेसरों को सब मारेंगे। सामनेवाला सुधरे, उसके लिए आपके प्रयत्न रहने चाहिए। लेकिन यदि प्रयत्न रिएक्शनरी हों, वैसे प्रयत्नो में नहीं पड़ना चाहिए। आप उसे झिड़कें और उसे खराब लगे वह प्रयत्न नहीं कहलाता। प्रयत्न अंदर करने चाहिए, सूक्ष्म प्रकार से ! स्थूल तरह से यदि आपको नहीं करना आता तो सूक्ष्म प्रकार से प्रयत्न करने चाहिए। अधिक उलाहना नहीं देना हो तो थोड़े में ही कह देना चाहिए कि हमें यह शोभा नहीं देता । बस इतना ही कहकर
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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