SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैसे-जैसे पुद्गल पर्याय बदलते हैं, वैसे-वैसे ज्ञानपर्याय बदलते हैं। पर्यायों के निरंतर परिवर्तनों में भी ज्ञान संपूर्ण शुद्ध, सर्वांग शुद्ध रहता है! ज्ञान में भेद नहीं होता। केवलज्ञान स्वरूपी आत्मा में तो ज्ञान और दर्शन का भेद भी नहीं है। गुण और वस्तु अभिन्न भाव से, अभेद भाव से ही होते हैं। जब कि शब्द में कहने जाएँ तो भेद भासित होता है! __ अवस्था का ज्ञान विनाशी है, मूल स्वाभाविक ज्ञान सनातन है ! सामने आनेवाले ज्ञेय के आकार जैसा हो जाने के बावजूद भी ज्ञान खुद की शुद्धता नहीं चूकता, किसी भी काल में! आत्मा और पुद्गल दोनों ही द्रव्य, गुण और पर्याय सहित हैं। आत्मा के गुण अन्वय-सहचारी होते हैं और पर्याय परिवर्तनशील होते हैं। वस्तु की सूक्ष्म अवस्थाओं को पर्याय कहते हैं। ज्ञेय जानने से राग-द्वेष होते हों तो बंधन है और यदि वीतराग रहे तो खुद मुक्त ही है! दर्शन सामान्यभाव से होता है और ज्ञान विशेषभाव से होता है, जिसके कारण ज्ञेय अलग-अलग दिखते हैं और उसीसे ज्ञान पर्याय ज्ञेयाकार हो जाता हैं, परन्तु द्रश्याकार नहीं हो पाता। आत्मा स्वभाव से आकाश जैसा है, लाइट जैसा है। इस लाइट को डिब्बे में बंद किया हो, फिर भी उसे कुछ भी नहीं चिपकता, आत्मा का द्रव्य इस लाइट जैसा ही है, प्रकाशमान करने की शक्ति-वह ज्ञान-दर्शन है, गुण है, और उस प्रकाश में जो सारी चीजें दिखती हैं, उन्हें ज्ञेय कहते हैं। चेतन के चेतन पर्याय और अचेतन के अचेतन पर्याय होते हैं। यथार्थ आत्मा प्राप्त करने के बाद ही आत्मा का आनंद उत्पन्न होता है। चाहे कैसी भी स्थिति हो, फिर भी निरंतर परमानंद रहे, उसीको मोक्ष कहते हैं। बाह्य किसीभी आलंबन के बिना सहज उत्पन्न होनेवाला आनंद, वही आत्मानंद है। आनंद, वह आत्मा का अन्वय गुण है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy