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________________ कहता है, जब कि वीतराग 'परीक्षा देनी' कहते हैं, 'परिणाम' अपने आप आएगा। आत्मा का स्वभाव ऐसा है कि जैसी कल्पना करे, तुरन्त ही वैसा बन जाता है। आत्मा का प्रकाश बाहर गया इसलिए अहंकार खड़ा हो गया। मूल आत्मा चितवन नहीं करता, परन्तु जैसे ही 'अहंकार' के आरोपण से चितवन करता है, तब उसी रूप का विकल्प बन जाता है! चितवन अर्थात् जो सोचा करता है वह नहीं, परन्तु खुद मन में जो आशय निश्चित करता है, वह चिंतवन है। 'मैं दुःखी हूँ' ऐसा चिंतवन से दुःखी हो जाता है और 'सुखी हूँ' कहते ही सुखी हो जाता है, कोई पागल 'मैं समझदार हूँ' ऐसा चितवन करे तो वह समझदार हो जाएगा। 'मैं स्त्री हूँ, यह पुरुष है', जब तक वैसी बिलीफ़ है, तब तक मोक्ष नहीं है। खुद आत्मा है' ऐसा बरते तभी मोक्ष है! पुद्गल अधोगामी स्वभाव का है, आत्मा ऊर्ध्वगामी स्वभाव का है। बुद्धिशालियों के टच में आने से खुद अधोगामी बनता है। परमाणुओं के आवरण जितने अधिक, उतनी गति नीची। आत्मा जब निरावरण हो जाए, तभी मोक्ष में जाता है। आत्मा को जो गुणधर्मसहित जाने और तद्रूप परिणाम प्राप्त करे, उसीको आत्माज्ञान होता है। अनंतगुण का धर्ता आत्मा है-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतशक्ति, अनंतसुख, अव्यबाध, अरूपी, असंग, अविनाशी...... आत्मा का शुद्धत्व अनंत ज्ञेयों को देखने-जानने के बावजूद भी जाता नहीं है, अनंतकाल से!!! अक्रमज्ञानी के इस अद्भुत वाक्य को जो पूर्णतः समझ जाएगा, वही उस पद को प्राप्त करेगा। "अनंत ज्ञेयों को जानने में परिणमित हुई अनंत अवस्थाओं में, मैं संपूर्ण शुद्ध हूँ, सर्वांग शुद्ध हूँ।" - दादा भगवान
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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