SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप्तवाणी-३ १५१ दादाश्री : हाँ, अच्छे कृत्य तो ये सभी पेड़ भी करते हैं । और वे बिल्कुल अच्छे कृत्य ही करते हैं । लेकिन वे खुद कर्ता भाव में नहीं हैं। ये पेड़ जीवित हैं। सभी दूसरों के लिए अपने फल देते हैं। आप अपने फल दूसरों को दे दो। आपको अपने फल मिलते रहेंगे। आपके जो फल उत्पन्न हों- दैहिक फल, मानसिक फल, वाचिक फल, 'फ्री ऑफ कॉस्ट' लोगों को देते रहो तो आपको आपकी हरएक वस्तु मिल जाएगी। आपके जीवन की ज़रूरतों में किंचित् मात्र अड़चन नहीं आएगी और जब वे फल आप अपने आप खा जाओगे तो अड़चन आएगी । यदि आम का पेड़ अपने फल खुद खा जाए तो उसका जो मालिक होगा, वह क्या करेगा? उसे काट देगा न? इसी तरह ये लोग अपने फल खुद खा जाते हैं। इतना ही नहीं, बल्कि ऊपर से फ़ीस माँगते हैं । एक अर्जी लिखने के बाईस रुपये माँगते हैं ! जिस देश में 'फ्री ऑफ कॉस्ट' वकालत करते थे और ऊपर से अपने घर भोजन कराकर वकालत करते थे, वहाँ यह दशा हुई है। यदि गाँव में झगड़ा हुआ हो, तो नगरसेठ उन दो झगड़नेवालों से कहता, 'भैया मगनलाल आज साढ़े दस बजे आप घर आना और नगीनदास, आप भी उसी समय घर आना ।' और नगीनदास की जगह यदि कोई मज़दूर होता या किसान होता, जो लड़ रहे होते तो उनको घर बुला लेता । दोनों को बिठाकर, दोनों की सुलह करवा देता । जिसके पैसे चुकाने हों, उसे थोड़े नक़द दिलवाकर, बाकी के किश्तों में देने की व्यवस्था करवा देता । फिर दोनों से कहता, 'चलो, मेरे साथ भोजन करने बैठ जाओ ।' दोनों को खाना खिलाकर घर भेज देता । हैं आज ऐसे वकील ? इसलिए समझो और समय को पहचानकर चलो। और यदि खुद, खुद के लिए ही करे, तो मरते समय दुःखी होगा । जीव निकलता नहीं और बंगले - मोटर छोड़कर जा नहीं पाता ! और यह लाइफ यदि परोपकार के लिए जाएगी तो आपको कोई भी कमी नहीं रहेगी। किसी तरह की आपको अड़चन नहीं आएगी । आपकी जो-जो इच्छाएँ हैं, वे सभी पूरी होंगी और ऐसे उछल-कूद करोगे, तो एक भी इच्छा पूरी नहीं होगी। क्योंकि वह रीति, आपको नींद ही नहीं आने देगी। इन सेठों को तो नींद ही नहीं आती, तीन
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy