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________________ १४० आप्तवाणी-३ थोड़े हिप्पी यहाँ आए और यहाँ के लोगों ने उनकी नकल कर डाली। इसे जीवन कहा ही कैसे जाए? लोग 'गुड़ मिलता नहीं, चीनी मिलती नहीं' ऐसे शोर मचाते रहते हैं। खाने की चीज़ों के लिए क्या शोर मचाना चाहिए? खाने की चीज़ों को तो तुच्छ माना गया है। खाने का तो, पेट है तो मिल ही जाता है। दाँत है उतने कौर मिल ही जाते हैं। दाँत भी कैसे हैं! चीरने के, फाड़ने के, चबाने के, अलग-अलग। ये आँखें कितनी अच्छी हैं? करोड़ रुपये दें तब भी ऐसी आँखें मिलेंगी? नहीं मिलेंगी। अरे, लाख रुपये हों तब भी अभागा कहेगा, 'मैं दुःखी हूँ'। अपने पास इतनी सारी क़ीमती वस्तुएँ हैं, उनकी क़ीमत समझता नहीं है। अगर सिर्फ आँख की ही क़ीमत समझे, तब भी सुख लगे। ये दाँत भी अंत में तो दिवालिया निकालनेवाले हैं, लेकिन आजकल बनावटी दाँत डालकर उन्हें पहले जैसे बना देते हैं। लेकिन वह भूत जैसा लगता है। कुदरत को नये दाँत देने होते तो वह नहीं देती? छोटे बच्चे को नये दाँत देती है न? इस देह को गेहूँ खिलाए, दाल खिलाई, फिर भी अंत में अर्थी ! सबकी अर्थी ! अंत में तो यह अर्थी ही निकलनेवाली है। अर्थी यानी कुदरत की जब्ती। सब यहीं रखकर जाना है और साथ में क्या ले जाना है? घरवालों के साथ की, ग्राहकों के साथ की, व्यापारियों के साथ की गुत्थियाँ! भगवान ने कहा है कि 'हे जीवों! समझो, समझो, समझो। मनुष्यपन फिर से मिलना महादुर्लभ है।' जीवन जीने की कला इस काल में है ही नहीं। मोक्ष का मार्ग तो जाने दो, लेकिन जीवन जीना तो आना चाहिए न? किसमें हित? निश्चित करना पड़ेग! हमारे पास व्यवहार जागृति तो निरंतर होती है! कोई घड़ी की कंपनी मेरे पास से पैसे नहीं ले गई है। किसी रेडियोवाले की कंपनी मेरे पास से पैसे नहीं ले गई है। हमने तो खरीदा ही नहीं। इन सबका अर्थ ही क्या
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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