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________________ १३८ आप्तवाणी-३ स्वरूपज्ञान मिलने से पहले तरंगें आती थीं न? तरंगो को आप पहचानते हो न? प्रश्नकर्ता : जी हाँ, तरंगें आती थीं। दादाश्री : भीतर तरह-तरह की तरंगें आया करती हैं, उन तरंगों को भगवान ने आकाशी फूल कहा है। आकाशी फूल कैसा था और कैसा नहीं था? उसके जैसी बात! सभी तरंग में और अनंग में, दो में ही पड़े हुए हैं। ऐसे, सीधी धौल (हथेली से मारना) नहीं मारते हैं। सीधी धौल मारें वह तो पद्धतिपूर्वक का कहलाता है। भीतर 'एक धौल लगा दूँगा' इस तरह अनंग धौल मारता रहता है। जगत् तरंगी भूतों में तड़पता रहता है। ऐसा होगा तो, ऐसा होगा और वैसा होगा। ऐसे शौक की कहाँ ज़रूरत है? जगत् पूरा 'अन्नेसेसरी' परिग्रह के सागर में डूब गया है। 'नेसेसरी' को भगवान परिग्रह नहीं कहते हैं। इसलिए हरएक को खुद की नेसेसिटी कितनी है, यह निश्चित कर लेना चाहिए। इस देह को मुख्य किसकी ज़रूरत है? मुख्य तो हवा की। वह उसे हर क्षण फ्री ऑफ कॉस्ट मिलती ही रहती है। दूसरा, पानी की ज़रूरत है। वह भी उसे फ्री ऑफ कॉस्ट मिलता ही रहता है। फिर ज़रूरत खाने की है। भूख लगी यानी क्या कि फायर हुई, इसीलिए उसे बुझाओ। इस फायर को बुझाने के लिए क्या चाहिए? तब ये लोग कहते हैं कि 'श्रीखंड, बासुंदी!' अरे नहीं, जो हो वह डाल दे न अंदर। खिचड़ी-कढ़ी डाली हो तब भी वह बुझ जाती है। फिर सेकन्डरी स्टेज की ज़रूरत में पहनने का, पड़े रहने का वह है। जीने के लिए क्या मान की ज़रूरत है? यह तो मान को ढूँढता है और मूर्छित होकर फिरता है। यह सब 'ज्ञानीपुरुष' के पास से जान लेना चाहिए न? एक दिन यदि नल में चीनी डाला हुआ पानी आए तो लोग ऊब जाएँ। अरे! ऊब गए? तो कहे, 'हाँ, हमें तो सादा पानी ही चाहिए।' ऐसा यदि हो न तो उसे सच्चे की क़ीमत समझ में आए। ये लोग तो फेन्टा और कोकाकोला खोजते हैं। अरे, तुझे किसकी ज़रूरत है वह जान ले
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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