________________
आप्तवाणी-३
१३७
चार वस्तुएँ मिली हों और कलह करें, वे सब मूर्ख, फूलिश कहलाते हैं। टाइम पर खाना मिलता है या नहीं मिलता? फिर चाहे जैसा हो, घी वाला या बिना घी का, लेकिन मिलता है न? टाइम पर चाय मिलती है या नहीं मिलती? फिर दो टाइम हो या एक टाइम, लेकिन चाय मिलती है या नहीं मिलती? और कपड़े मिलते हैं या नहीं मिलते? कमीज़-पेन्ट, सर्दी में, ठंड में पहनने को कपड़े मिलते हैं या नहीं मिलते? पड़े रहने के लिए कोठड़ी है या नहीं? इतनी चार वस्तुएँ मिलने पर भी शोर मचाएँ, उन सभी को जेल में डाल देना चाहिए! फिर भी उसे शिकायत रहती हो तो उसे शादी कर लेनी चाहिए। शादी की शिकायत के लिए जेल में नहीं डालते। इन चार वस्तुओं के साथ इसकी ज़रूरत है। उमर हो जाए, उसे शादी के लिए मना नहीं कर सकते। लेकिन इसमें भी, कितने ही शादी होने के बाद उसे तोड़ डालते हैं, और फिर अकेले रहते हैं
और दु:ख मोल लेते हैं। हो चुकी शादी को तोड़ डालते हैं, किस तरह की पब्लिक है यह?! ये चार-पाँच वस्तुएँ न हों तो हम समझें कि इसे ज़रा अड़चन पड़ रही है। वह भी दुःख नहीं कहलाता, अड़चन कहलाती है। यह तो सारा दिन दुःख में निकालता है, सारा दिन तरंग (शेखचिल्ली जैसी कल्पनाएँ) करता ही रहता है। तरह-तरह के तरंग करता रहता है!
एक व्यक्ति का मुँह ज़रा हिटलर जैसा था, उसका नाक उससे ज़रा मिलता-जुलता था। वह अपने आपको मन में खुद मान बैठा था कि मैं तो हिटलर जैसा हूँ! घनचक्कर! कहाँ हिटलर और कहाँ तू? क्या मान बैठा है? हिटलर तो यों ही आवाज़ दे, तो सारी दुनिया हिल उठे! अब इन लोगों के तरंगों का कहाँ पार आए?
इसलिए वस्तु की कोई जरूरत नहीं है, यह तो अज्ञानता का दुःख है। हम ‘स्वरूपज्ञान' देते हैं, फिर दु:ख नहीं रहते। हमारे पाँच वाक्यों में आप कहाँ नहीं रहते, उतना ही बस देखते रहना है! अपने टाइम पर खाना खाने का सब मिलता रहेगा। और वह फिर 'व्यवस्थित' है। यदि दाढ़ी अपने आप उगती है तो क्या तुझे खाने-पीने का नहीं मिलेगा? इस दाढ़ी की इच्छा नहीं है, फिर भी वह बढ़ती है न! अब आपको अधिक वस्तुओं की ज़रूरत नहीं है न? अधिक वस्तुओं की देखो न कितनी सारी परेशानी है! आपको