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आप्तवाणी-३
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दादाश्री : बहुत फर्क है, आकाश-पाताल जितना अंतर है । लेकिन जो देहयोगी हैं, उसके बजाय मनयोगी बहुत उच्च हैं। मन के योग द्वारा आत्मा के योग तक नहीं पहुँच सकते ।
प्रश्नकर्ता : अंतर्मुखी और बहिर्मुखी, इन दोनों के बारे में समझाइए।
दादाश्री : अविनाशी का विचार आया कि अंतर्मुखी हो जाता है। जब तक विनाशी चीज़ों की रुचि हैं, इच्छा हैं, वृत्तियाँ बाहर भटकती हैं, तब तक बहिर्मुखी रहता है ।
आत्मा - अनात्मा का भेदांकन
प्रश्नकर्ता : आत्मा और अनात्मा को अलग करना हो तो क्या करना
चाहिए?
दादाश्री : सोना और तांबा अँगूठी में मिला हुआ रहता है और उसमें से सोने को अलग करना हो तो क्या करना चाहिए? सुनार से पूछो तो वह क्या कहेगा? ‘हमें अँगूठी दे जाओ तो काम हो जाएगा ।' उसी प्रकार आपको हमें इतना ही कहना है कि 'हमारा निबेड़ा ला दीजिए', तो काम हो जाएगा। आत्मा एक सेकन्ड के लिए भी अनात्मा नहीं हुआ है । ज्ञानी को कहने जैसा है, इसमें आपको करने जैसा कुछ भी नहीं है । 'करना', वह भ्रांति है, जिसे ‘ज्ञानी' मिल गए उसका निबेड़ा आ गया ।
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प्रश्नकर्ता : परमात्मा को पहचानने में दुःख और अशांति का अनुभव क्यों होता है?
दादाश्री : परमात्मा तो हैं ही, लेकिन आप परमात्मा के साथ जुदापन रखते हो। अंदर परमात्मा बैठे हैं, उनकी भक्ति उत्पन्न हो जाए तो दु:ख उत्पन्न नहीं होगा। लेकिन बिना पहचाने किस तरह से भक्ति उत्पन्न होगी? प्रत्यक्ष भक्ति से सुख है और परोक्ष भक्ति से घड़ीभर में शांति और घड़ीभर में अशांति होती है।
प्रश्नकर्ता : भगवान यदि दुःख के हर्ता हैं और सुख के कर्ता हैं, तो फिर अशांति क्यों है ?