________________
आप्तवाणी-३
१०९
प्रश्नकर्ता : आत्मा को पहचानने से हम क्या समझें कि हमें क्या प्राप्त हुआ?
दादाश्री : सनातन सुख।
प्रश्नकर्ता : आत्मा चेतन है। सनातन है, या उसका विलीनीकरण होता है? क्या उसकी स्थिति बदलती है?
दादाश्री : आत्मा सनातन है, वही का वही रहता है, जैसे कि अंगूठी में सोना और तांबा मिला हुआ हो तो सोने की स्थिति बदलती नहीं है, उसके गुणधर्म बदलते नहीं हैं, उसी प्रकार। आत्मा के गुणधर्म अनात्मा के साथ रहने के बावजूद बदलते नहीं हैं, लेकिन सोने को प्रयोग से अलग किया जा सकता है।
प्रश्नकर्ता : गेहूँ के दाने में और पक्षी में चेतना अलग है न?
दादाश्री : नहीं, चेतना तो समान ही है, मुझमें, आपमें और गेहूँ के दाने में चेतना तो एक समान ही है लेकिन हर एक के आवरण में फर्क है।
प्रश्नकर्ता : चेतन दूसरों को हिलाता है?
दादाश्री : नहीं, सिर्फ उसके स्पर्श से ही सबकुछ चलता है। संयोगों के दबाव से एक बिलीफ़ उत्पन्न हो जाती है कि 'मैं कर रहा हूँ।' उस विभाविक भाव में होने के बावजूद आत्मा 'खुद' स्वाभाविक भाव में ही होता है।
प्रश्नकर्ता : मृतदेह में तो सभी तत्व रहते हैं न?
दादाश्री : नहीं। सिर्फ पुद्गल और आकाश दो ही तत्व रहते हैं। बाकी के उड़ जाते हैं। फिर सभी तत्व अलग-अलग हो जाते हैं और सब अपने-अपने मूल तत्वों में चले जाते हैं।
प्रश्नकर्ता : लेकिन उसमें भी स्पेस तो रोकते हैं न?
दादाश्री : मूल पुद्गल तत्व की खुद की स्वाभाविक स्पेस तो होती ही है। लेकिन इन दूसरे परमाणुओं के सम्मेलन से जो देह उत्पन्न होता