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आप्तवाणी-३
दादाश्री : हाँ, वह अंतिम स्टेज कहलाती है। उससे आगे फिर कुछ करने को नहीं रहता।
आत्मा का द्रव्य, क्षेत्र प्रश्नकर्ता : आत्मा क्षेत्र के रूप में किस तरह से रहा हुआ है?
दादाश्री : आत्मा का स्वक्षेत्र, खुद का अनंत प्रदेशी भाग है, वह। उसे वास्तव में क्षेत्र नहीं कहना चाहता हूँ। वह तो परक्षेत्र में से निकालने के लिए स्वक्षेत्र का वर्णन किया है।
प्रश्नकर्ता : आत्मा का द्रव्य बदलता है?
दादाश्री : आत्मा का स्वद्रव्य नहीं बदलता। लेकिन आत्मा को जो द्रव्य इस संसारभाव से लागू हुए हैं, वे सब बदलते रहते हैं। क्षेत्र बदलता रहता है, काल बदलता रहता है और उसके आधार पर भाव बदलते रहते हैं। भयवाली जगह पर गए, तो वहाँ पर भय उत्पन्न होता है। जीवमात्र के प्रत्येक समय में भाव बदलते रहते हैं।
प्रश्नकर्ता : आत्मा के प्रकार अलग-अलग होते हैं? दादाश्री : नहीं, आत्मा एक ही प्रकार के हैं। प्रश्नकर्ता : आत्मा के लिए राग-द्वेष लागू होते हैं?
दादाश्री : नहीं, राग-द्वेष आत्मा का गुण नहीं है। यह तो रोंग बिलीफ़ से राग-द्वेष होते हैं।
आत्मा ही परमात्मा प्रश्नकर्ता : 'आत्मा ही परमात्मा है' यह समझाइए।
दादाश्री : 'रिलेटिव' में आत्मा है और 'रियल' में परमात्मा है। जब तक विनाशी चीज़ों का व्यापार है तब तक संसारी आत्मा है, और संसार में नहीं है तो परमात्मा है। 'रिलेटिव' को भजे तो विनाशी है और जो 'रियल' को भजे, वह परमात्मा है। यदि तुझे भान है तो परमात्मा में रहेगा और भान नहीं है तो तू चंदूभाई है।