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आप्तवाणी-३
चैतन्य का अर्थ क्या है? ज्ञान-दर्शन को इकट्ठा करें तो वह चैतन्य कहलाता है। अन्य किसी वस्तु में चैतन्य नहीं है। मात्र आत्मा में ही अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन है, इसलिए उसे चैतन्यघन कहा है।
आत्मा : अनंत प्रदेश आत्मा के अनंत प्रदेश हैं और एक-एक प्रदेश में अनंत-अनंत ज्ञायक शक्ति है, लेकिन ज्ञेय को ज्ञायक मानते हैं, इसलिए आत्मा के प्रदेशों पर कर्मकलंक लगता है, उससे खुद की अनंत शक्तियाँ आवृत हो जाती हैं। इस घड़े के अंदर लाइट हो और उसका मुंह बंद कर दिया हो तो लाइट नहीं आएगी। पीपल के पेड़ की छाल पर लाख चिपक जाने से छाल नहीं दिखती, उसके जैसा है। इन एकेन्द्रिय जीवों में एक इन्द्रिय जितना छेद डलता है, उतना ही उसका प्रकाश बाहर आता है। दो इन्द्रिय जीवों में दो इन्द्रिय जितना, तीन में तीन और चार में चार जितना प्रकाश बाहर आता है। पाँच इन्द्रिय और उसमें भी मनुष्य का सबसे अंतिम प्रकार का डेवेलपमेन्ट है, वहाँ पर सभी प्रदेश खुले हुए हो सकते हैं, ऐसा है। जीव-मात्र में नाभि के सेन्टर पर आत्मा के आठ प्रदेश खुले ही होते हैं, जिसके कारण यह जगत् व्यवहार जान-पहचान वगैरह होता है। इसी कारण से किसी भी जीव को उलझन नहीं होती। ये आठ प्रदेश आवृत हो जाएँ तो कोई किसीको पहचान भी नहीं सकेगा और वापस घर पर लौट भी नहीं सकेगा। लेकिन देखो न, यह व्यवस्थित की व्यवस्था कितनी सुंदर है ! आवरणों की भी लिमिट रखी है न? मनुष्यों में भी वकील में जो छेद डला हो उसके आधार पर उसका उस लाइन का दर्शन खुल जाता है। केमिस्ट का उस दिशा का छेद खुल गया होता है। छोटी चींटी में भी खुला हुआ होता है।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण, इस प्रकार आवरणों से आत्मा की लाइट रुकी हुई रहती है। 'ज्ञानीपुरुष' के तो सभी आवरण टूट चुके होते हैं, इसलिए भगवान संपूर्ण प्रकाशमान हुए हैं ! संपूर्ण निरावृत हो जाएँ तो खुद ही परमात्मा है। सिद्ध भगवंतों में प्रत्येक प्रदेश खुला हुआ होता है। प्रत्येक प्रदेश में खुद का अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनंत सुख होता है ! लेकिन