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________________ आप्तवाणी-३ ८३ दादाश्री : आत्मा ही परमात्मा है, सिर्फ उसे इसका भान होना चाहिए। 'मैं परमात्मा हूँ', ऐसा भान आपको एक मिनट के लिए भी हो जाए तो 'आप' 'परमात्मा' होने लगोगे। आत्मा : स्वभाव का कर्ता 'ज्ञानीपुरुष' ने ज्ञान में क्या देखा? ऐसा तो उन्होंने क्या देखा कि आत्मा को अकर्ता कहा? तो कर्ता कौन है? यह जगत् किस तरह से चल रहा है, ये क्रियाएँ किस तरह से हो रही हैं उसे ज्ञान में देखा, तभी से सटीक हो गया। संसार का कर्ता आत्मा नहीं है, आत्मा तो खुद के ज्ञान का कर्ता है, स्वाभाविक और विभाविक ज्ञान का कर्ता है। वह तो प्रकाश का ही कर्ता है। उससे बाहर कभी भी गया ही नहीं। क्रिया का कर्ता आत्मा नहीं है, खुद ज्ञानक्रिया और दर्शनक्रिया का ही कर्ता है। अन्य कहीं पर भी उसकी सक्रियता नहीं है। मात्र आत्मा की उपस्थिति से ही दूसरे सभी तत्वों की सक्रियता उत्पन्न हो जाती है। आत्मा : चैतन्यघन स्वरूप प्रश्नकर्ता : आत्मा चैतन्यघन स्वरूप है ऐसा कहते हैं, और फिर दूसरी तरफ ऐसा भी कहते हैं कि आत्मा आकाश जैसा सूक्ष्म है। तो इन दोनों का मेल कैसे पड़ेगा? दादाश्री : आकाश तत्व हर एक जगह पर विद्यमान है। इस शरीर में और हीरे में भी आकाश तत्व है, लेकिन हीरे में सबसे कम है इसीलिए वह जल्दी से टूटता नहीं है। जितना आकाश तत्व कम, वस्तु उतनी अधिक सघन। आत्मा आकाश जैसा है यानी कि पूरे शरीर में आकाश की तरह सभी जगह पर रह सकता है। और फिर आकाश जैसा सूक्ष्म है, इसलिए आँखों से दिखता नहीं है, लेकिन अनुभव किया जा सकता है। प्रश्नकर्ता : आत्मा में आकाश है या नहीं? दादाश्री : नहीं, आत्मा में आकाश नहीं होता। आकाश जैसा यानी कि सब ओर फैल जाए, ऐसा है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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