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________________ आप्तवाणी-३ कहाँ गया वह सुख? 'स्वरूपज्ञान' मिलने के बाद जैसे-जैसे आत्म-प्रदेश निरावृत होते जाते हैं, वैसे-वैसे आनंद बढ़ता जाता है। एक आत्मा में अनंत शक्तियाँ हैं। अनंत जीव हैं, हर एक जीव अलग-अलग प्रकृतिवाले हैं। हर एक में अलग-अलग शक्ति बाहर निकली है, इतनी एक आत्मा में शक्तियाँ है। जिसमें जो प्रकट हुई, उस शक्ति से कमाकर वह रोटियाँ खाता है। आत्मा अनंत प्रदेशात्मक है। आत्मा एक ही है, उसके भाग अलगअलग हैं, ऐसा कुछ भी नहीं है। लेकिन वह अनंत प्रदेशवाला हैं। यानी कि एक-एक प्रदेश पर एक-एक परमाणु चिपका हुआ है। जैसे मूंगफली के दाने पर चीनी चढाकर हिला-हिलाकर शीरणी बनाते हैं न? उसी प्रकार से यह प्रकृति रात-दिन हिलती ही रहती है। तो इसमें भी जिस पर चीनी चढ़ गई, उतना सब आवृत हो गया और जितना जिसका बाकी रह गया, उसका उतना रह गया। सबकुछ नियमपूर्वक चलता ही रहता है। जहाँजहाँ से आवरण टूटा हुआ हो, वहाँ-वहाँ से उसकी शक्ति प्रकट होती है। किसीमें वाणी का आवरण टूटा हुआ होता है, बुद्धि का टूटा होता है तो वह वकालत ही करता रहता है। अब वकील से कहे कि साहब, ज़रा इतना खेत जोत दीजिए न, तो वह मना करेगा। क्योंकि उसका वह आवरण खुला हुआ नहीं होता। लेकिन यह सब नियमपूर्वक होता है। कभी भी ऐसा नहीं होता कि सभी में सुथारी काम का आवरण टूट जाए, नहीं तो वे सभी सुथार ही बन जाएँगे, और फिर क्या दशा होगी? शिल्पकला का आवरण सब में टूट जाए और सभी शिल्पी बन जाएँ, तो कौन किसके यहाँ शिल्पी का काम करेगा फिर? सभी वॉरियर्स बन जाएँ तो? अतः यह 'व्यवस्थित' के अनुसार सबकुछ 'व्यवस्थित' प्रकार से ही पैदा होते रहते हैं। डॉक्टर, वकील वगैरह सभीकुछ बनते हैं, इसलिए हर किसीका काम चलता है। नहीं तो यदि सभी पुरुष बन जाएँ तो क्या होगा? स्त्रियाँ कहाँ से लाएँगे? शादी कौन करेगा? एक भी प्रदेश में रहे हुए पुद्गल परमाणु को 'मेरा' नहीं माना जाए, तब खुद का संपूर्ण सुख बरतेगा।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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