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आप्तवाणी-३
बाहर से जो कोई भी आनंद आता है, वह पौद्गलिक आनंद है। किंचित् मात्र भी बाहर से आनंद नहीं हो, पुद्गल परमाणु मात्र में से नहीं हो, सहज, अप्रयास प्राप्त आनंद, वही आत्मा का आनंद है। शास्त्रों को पढ़कर जो आनंद आता है, वह आत्मा का आनंद नहीं है, वह पौद्गलिक आनंद है। बहुत धूप से थका हुआ मनुष्य बबूल के नीचे आकर निःश्वास ले, उसके जैसा है। जो मेहनत की है, उस मेहनत का आनंद है, आनंद तो साहजिक रहना चाहिए, निराकुल आनंद रहना चाहिए। विवाह में और सिनेमा में आनंद है, लेकिन वह आकुल-व्याकुल आनंद है, वह मनोरंजन है, आत्मरंजन नहीं है। निराकुल आनंद उत्पन्न हो, तब समझना कि आत्मा प्राप्त हुआ है।
आनंद तो आत्मा के सहचारी गुणों में से एक गुण है, अन्वय गुण है। आत्मा जानने के बाद आत्मा का शुद्ध पर्यायिक आनंद उत्पन्न होता है, वह क्रमपूर्वक बढ़ते-बढ़ते संपूर्ण दशा तक पहुँचता है। जिस प्रकार से बाहर के सभी संयोगों में से मुक्त होने के बाद परेशानी नहीं रहती, ठेठ केवलज्ञान होने तक कुछ भाग शुद्ध पर्याय में नहीं रहते। केवलज्ञान के बाद में जब सभी पर्याय शुद्ध पर्यायों में आ जाते हैं, उसके बाद में वह मोक्ष में जाता है।
प्रश्नकर्ता : सच्चा आनंद किस प्रकार से अनुभव किया जा सकता है?
दादाश्री : सच्चा आनंद किसी भी बाह्य प्रकार से अनुभव नहीं किया जा सकता। इस लौकिक आनंद के लिए इन्द्रियों की ज़रूरत हैं, लेकिन सच्चे आनंद के लिए इन्द्रियों की ज़रूरत नहीं हैं। बल्कि इन्द्रियाँ अंतराय डालती हैं। सच्चा आनंद तो शाश्वत आनंद है। जब तक किसी भी वस्तु का आधार रहता है, तब तक वह पौद्गलिक आनंद है। आधार अर्थात् कोई वस्तु मिले, विषयों की वस्तु मिले, मान-तान मिले, लोभ में लाभ हो, वे सभी कल्पित, पौद्गलिक आनंद! जगत् विस्मृत करवा दे, वह आनंद कहलाता है, और वही आत्मा का आनंद है। आनंद तो निरुपाय आनंद होना चाहिए, मुक्त आनंद होना चाहिए।