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आप्तवाणी-३
जीव मात्र के भीतर भरपूर आनंद भरा हुआ ही है, लेकिन आत्मा का वह आनंद आना बंद हो गया है। कषाय, क्लेश, राग-द्वेष होने से आत्मा पर आवरण आ जाता है और आनंद चला जाता है। गाय के सींग पर राई का दाना रखने पर जितनी देर तक वह टिके, उतनी ही देर तक यदि आत्मा का आनंद चख ले तो वह फिर जाएगा नहीं। एक बार दृष्टि में फ़िट हो गया, इसलिए। सच्चा आनंद एक सरीखा रहता है, बहुत तृप्ति रहती है। उस आनंद का वर्णन ही नहीं हो सकता।
क्रोध-मान-माया-लोभ की गैरहाज़िरी, वही आनंद है। जो संसारी आनंद आता है, वह मुर्छा का आनंद है, ब्रान्डी पीने जैसा। जगत् ने आनंद देखा ही नहीं है। जो भी देखा है, वह तिरोभावी आनंद देखा है। आनंद में थकान नहीं लगती, बोरियत नहीं होती। बोर होने का मतलब ही थकान है।
प्रश्नकर्ता : और किसी जगह की बजाय यहाँ की चीज़ मुझे अलग लगती है। यहाँ पर सभी के चेहरे पर हास्य और आनंद अलग ही प्रकार का है। इसका क्या कारण है?
दादाश्री : आपको यह परीक्षा (जाँच) करना आया, वह बहुत बड़ी बात है। यह परीक्षा करना आसान नहीं है। यह तो वर्ल्ड का आश्चर्य है! इसका कारण यह है कि यहाँ पर सबके अंदर की जलन बंद हो गई है
और आत्मा का आनंद उत्पन्न हुआ है। यहाँ पर सच्चा आनंद प्राप्त होता है, उससे कितने ही जन्मों से पड़े हुए घाव भर जाते हैं। वर्ना संसार के घाव तो भरते ही नहीं है न! एक घाव भरने लगे, तब तक तो दूसरे पाँच घाव हो जाते हैं ! आत्मा के आनंद से अंदर सभी घाव भर जाते हैं, उससे मुक्ति का अनुभव होता है !!
प्रश्नकर्ता : दुनिया में ऐसी कोई चीज़ है कि जो आनंद प्राप्त करवाए?
दादाश्री : 'ज्ञानीपुरुष' को देखते ही आनंद होता है।
प्रश्नकर्ता : आपकी बात सुनने से ही हमें असीम आनंद होता है तो आपको कितना आनंद है?