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________________ आप्तवाणी-३ ६७ दादाश्री : वह स्वभाव से ही है। द्रव्य से तो सभी तत्व शुद्ध ही हैं, सिर्फ पर्याय से ही सब बिगड़ा है। इस पर्याय शब्द का जैसा संसार में उपयोग होता है, उस प्रकार से उपयोग नहीं कर सकते। पर्याय सिर्फ अविनाशी वस्तु पर, सत् वस्तु पर ही लागू होता है, अन्य किसी जगह पर लागू नहीं होता। चेतन के पर्याय चेतन होते हैं और अचेतन के पर्याय अचेतन होते हैं। द्रव्य, गणु और पर्याय यदि एक्जेक्टनेस में समझ में आ जाएँ तो 'केवलज्ञान स्वरूप' हो जाएगा! प्रश्नकर्ता : अचेतन पर्याय क्या असर डालते हैं? दादाश्री : 'ज्ञानी' पर किसी प्रकार का असर नहीं होता और अज्ञानी पर असर होता है। प्रश्नकर्ता : अज्ञानी को कर्म बँधवाता है? दादाश्री : हाँ। आत्मा के द्रव्य, गुण और पर्याय, वह बहुत गूढ़ बात है, समझ में आ सके, ऐसी नहीं है। वीतरागों का विज्ञान ऐसा नहीं है कि उसके पार जा सके। आत्मा : परमानंद स्वरूपी जब तक व्यवहार आत्मा है, तब तक मानसिक आनंद है। आत्मा को जानने के बाद आत्मा का आनंद प्राप्त होता है, शब्दरूप से सुने हुए आत्मा से काम नहीं चलता, यर्थाथ स्वरूप से होना चाहिए। __ निरंतर आनंद में रहने का नाम ही मोक्ष है। कोई गालियाँ दे, जेब काटे, तब भी आनंद नहीं जाए, वही मोक्ष है। मोक्ष कोई अन्य वस्तु नहीं है। 'ज्ञानीपुरुष' को निरंतर परमानंद ही रहता है। आत्मा का स्वभाव ही परमानंद स्वरूपी है। सिद्ध भगवंतों का परमानंद असीम होता है। उनका एक मिनट का आनंद पूरे जगत् के जीवों के एक वर्ष तक के आनंद के बराबर होता है। फिर भी यह तो स्थूल सिमिली (उपमा) ही है।
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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