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________________ आप्तवाणी-३ दादाश्री : हाँ। खुद के पर्याय को भी जो जानता है, वही वह खुद है, शुद्धात्मा है। प्रश्नकर्ता : हम संसार की परिवर्तित होती हुई चीज़ों को देख सकते हैं, लेकिन खुद की परमानेन्सी नहीं देख पाते। दादाश्री : जो वस्तुओं को हमेशा के लिए बदलते हुए देखता है, वह खुद परमानेन्ट है। अनंत ज्ञान है, इसीलिए तो इन अनंत ज्ञेयों को जान पाते हैं। नहीं तो किस तरह से जान पाएँगे? एक ही दिन सुना हो कि चाचा-ससुर का बेटा मर गया है, तो उसे किसी किताब में नोट नहीं करते। लेकिन जब बारह वर्ष बाद भी यदि उनके घर जाएँ तब भी 'क्या मगनभाई हैं घर में?' ऐसा कहते हैं क्या?! एक ही बार जाना की मर गए हैं तो, वह ज्ञान कैसे हमेशा हाज़िर ही रहता है!! कितने ही लोग मर जाते हैं, लेकिन सभीके बारे में यह याद रहता है या नहीं रहता? प्रश्नकर्ता : बिल्कुल रहता है। दादाश्री : ग़ज़ब की शक्ति है आत्मा की! व्यापार करता है, सबकुछ करता है, फिर भी आत्मा में रह सकता है! प्रश्नकर्ता : ज्ञान और दर्शन, जो आत्मा के गुण हैं, वे किस अपेक्षा से गुण कहे जाते हैं। दादाश्री : वह तो स्वाभाविक वस्तु है। आत्मा : गुणधर्म से अभेद स्वरूपी प्रश्नकर्ता : ज्ञान भेदवाला है या अभेद है? दादाश्री : भेदवाला होता ही नहीं। ज्ञान, दर्शन सबकुछ अभेद आत्मा रूपी है। जिस प्रकार सोने का पीला रंग, वह उसका गुण है, फिर वज़नदार है वह दूसरा धर्म, उस पर जंग नहीं लगता वह उसका धर्म है। अर्थात् ये सभी सोने के गुणधर्म हैं, उसी प्रकार आत्मा के भी गुणधर्म हैं। जिस प्रकार सोना उसके गुणधर्मों में अभेदभाव से सोना ही
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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