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________________ आप्तवाणी-३ है, उसी प्रकार से आत्मा के सभी गुणों में अभेदभाव से आत्मा ही है, वहाँ पर भेद नहीं है। प्रश्नकर्ता : ज्ञान जब अपने विचार में आता है, तब तो उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं, अभेद स्वरूप से नहीं रहता। जानते हैं अभेद स्वरूप में, लेकिन शब्द में वर्णन करना हो तो फिर भेदरूपी हो जाता है। दादाश्री : वर्णन करना हो तो भेद दिखेगा ही। 'सोना पीला है', ऐसा बोलना पड़ता है, लेकिन एट ए टाइम सभी गुणधर्म नहीं बोले जा सकते। वह वजनदार है, ऐसा दूसरी बार बोलना पड़ता है। उसी प्रकार से 'मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ' फिर भी भेद नहीं है, अभेद स्वरूप से है। वस्तु एक ही है। परिणमित अवस्था में आत्मा शुद्ध ज्ञान का स्वभाव ऐसा है कि ज्ञेय के आकार का हो जाता है, फिर भी खुद शुद्ध ही रहता है। एक ज्ञेय हटे तो नया ज्ञेय आ जाता है और खुद फिर से ज्ञानाकार हो जाता है, लेकिन दोनों चिपक नहीं जाते। अवस्था का ज्ञान नाशवंत है, स्वाभाविक ज्ञान अविनाशी है। जिस प्रकार से यह सूर्य है और ये उसकी किरणें हैं, उसी प्रकार आत्मा है और आत्मा की किरणें हैं, वह उसकी अवस्था हैं, यह तो सिर्फ अवस्था में ही परिवर्तन होता है, बाकी एक भी परमाणु बढ़ा नहीं है, न ही कम हुआ है! आत्मा : द्रव्य और पर्याय प्रश्नकर्ता : पर्याय का मतलब क्या है? । दादाश्री : ज्ञेय में ज्ञेयाकार परिणाम, वही पर्याय है। सिर्फ आत्मा का ही प्रकाश ऐसा है कि जो संपूर्ण ज्ञेयाकार हो सकता है। अन्य कोई प्रकाश ऐसा है कि जो ज्ञेयाकार हो सके। प्रश्नकर्ता : 'शून्य है तत्व से जो, पूर्ण है पर्याय से।' इसका मतलब क्या है?
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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