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________________ आप्तवाणी-३ वह ज्ञेय को देखता है, इसलिए। अवस्था बदलती है, लेकिन उसे वे खुद शुद्ध ही देखते हैं। अज्ञानी माँस का टुकड़ा देखे कि चिड़ उत्पन्न हो जाती है और उसमें अवस्थित हो जाता है, जब कि सिद्ध उसी वस्तु को ज्ञेय के रूप में, शुद्ध स्वरूप में ही देखते हैं। यदि सिद्ध भगवान के गुणों की भजना करे तो न जाने क्या-क्या प्राप्त हो जाए, ऐसा है! आत्मगुण : ज्ञान और दर्शन आत्मा क्या होगा? शब्दब्रह्म से तो सभी जानते हैं कि अनंत गुणवाला है। यर्थाथ आत्मज्ञान तो कब कहलाता है? जब वे गुण परिणामित होते हैं, तब। वर्ना 'मैं हीरा हूँ', बोलने से कहीं हीरा प्राप्त नहीं होता! आत्मज्ञान होने के लिए, आत्मा को गुणधर्मसहित जान लें और वह परिणामित हो जाए, तब आत्मज्ञान होता है। आत्मा के दो मुख्य गुण हैं : ज्ञान और दर्शन। इसके अलावा तो अनंत गुण हैं! 'अनंत ज्ञान-अनंत दर्शन-अनंत शक्ति-अनंत सुख'! आत्मा खुद शुद्ध ही है, लेकिन उसके जो पर्याय हैं, वे ज़रा अशुद्ध हो गए हैं। उन्हें हर एक को अलग-अलग धोना है। वे हमारा खुद का सुख रोक लेते हैं। प्रश्नकर्ता : अनंत ज्ञान, आत्मा के इस गुणधर्म को धर्म कहेंगे या गुण कहेंगे? दादाश्री : आत्मा के अनंत गुणधर्म हैं। गुण परमानेन्ट हैं और धर्म टेम्परेरी है। 'मैं अनंत ज्ञानवाला हूँ', वह उसका परमानेन्ट गुण है। 'मैं अनंत दर्शनवाला हूँ, वह उसका परमानेन्ट गुण है। मैं अनंत शक्तिवाला हूँ', वह उसका परमानेन्ट गुण है। 'मैं अनंत सुखधाम हूँ', वह उसका परमानेन्ट गुण है। _आत्मा के गुण परमानेन्ट हैं और उनके धर्म का उपयोग हो रहा है। ज्ञान परमानेन्ट है व देखना और जानना टेम्परेरी है। क्योंकि जैसे-जैसे
SR No.030015
Book TitleAptavani Shreni 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2012
Total Pages332
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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