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________________ आलोचना-प्रतिक्रमण-प्रत्याख्यान ३६३ लक्ष्य में रहते ही हैं। यह व्यवहारिक क्रिया नहीं कहलाती, उससे फिर बाकी का सभी शुद्ध होता रहता है। यह पुद्गल क्या कहता है? हमें 'शुद्ध' करो, 'आप' तो 'शुद्ध' हो गए! जब यह अशुद्ध हो चुका पुद्गल निकले, तब यदि प्रतिक्रमण करे तो उससे वह शुद्ध हो जाएगा। स्थूल और सूक्ष्म भूलें प्रतिक्रमण से जाती हैं और सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूलें देखने से जाती हैं। यह मार्ग ही आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान का है, और वह भी नक़द चाहिए। यह पान भी, जब दो आने केश दें, तब मिलता है। प्रतिक्रमण केश चाहिए, उधार से मोक्ष नहीं मिलेगा। मन से, वाणी से और देह से हुए सभी अतिक्रमणों के प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करने पड़ते हैं। यह हमारा मुखारविंद धारण करके, आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान करो तब तो ऐसा मिट जाएगा कि फिर से वह अतिक्रमण होगा ही नहीं, हमारी हाज़िरी से धुल जाता है। अतिक्रमण, वह सबसे बड़ी हिंसा है, उसके लिए प्रतिक्रमण होना चाहिए। बाहर की स्थूल हिंसा, वह तो स्पर्श करे या न भी करे, वह तो भीतर की मशीनरी कैसे घूमती है उसके अनुसार कर्म बंधन होता है, लेकिन भीतर की हिंसा, सूक्ष्म हिंसा तो धोनी ही पड़ती है। अतिक्रमण, वह तो हिंसाखोरी कहलाती है, अभी तो लोग हिंसा को भी नहीं समझते, तो प्रतिक्रमण क्या करेंगे? कैसा करेंगे? यदि स्थूल हिंसा, हिंसा कहलाती तो भरत राजा मोक्ष में ही नहीं जा सके होते! उनके हाथों तो कितनी ही सैनाएँ मारी गईं! स्थूल हिंसा बाधक नहीं है, सूक्ष्म हिंसा बाधक है! इन महात्माओं को हमने कुछ और ही प्रकार की चीज़ हाथ में दी है! आश्चर्यजनक है! दुनिया के लोगों को एक्सेप्ट करना पड़ेगा कि ये लड़ रहे होते हैं फिर भी उनके अंदर का समकित चला नहीं जाता, दोनों क्षेत्रों की धारा अलग ही बहती रहती है। आपकी तो दोनों ही धाराएँ एक साथ बहती रहती है। आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान के बिना दोनों धाराएँ अलग रहती ही नहीं। 'इन सब को' तो निरंतर आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान रहा करता है।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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