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________________ ३६४ आप्तवाणी-२ यह कैसा है? कि बाहर की क्रिया होती रहती है और भीतर आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान भी होते रहते हैं, वे निरंतर होने चाहिए। आप आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करते हो न? प्रश्नकर्ता : हाँ, संवत्सरी का प्रतिक्रमण होता है। दादाश्री : प्रतिक्रमण किस तरह से करने चाहिए, आपको वह समझाता हूँ। अभी आपके कोई गुरु हैं? प्रश्नकर्ता : नहीं। दादाश्री : जब आप से झगड़ा हो गया हो जो कि उदयकर्म है, प्राकृत भाव है, तो तुरंत ही आपने जिन्हें गुरु माना हो उन्हें याद करके जिनके साथ झगड़ा हो गया हो, उनके आत्मा को याद करके तुरंत ही प्रतिक्रमण करना है। यह अतिक्रमण, यह तो हमला कहलाता है। आपका सेठ के साथ अतिक्रमण हो जाए तो वहाँ भी गुरु को धारण करके आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान करें तो सब मिट जाता है। उससे क्या होता है? कि सेठ के लिए जो अतिक्रमण किया था उसकी पक्की गाँठ नहीं बंधेगी, वह गाँठ ढीली हो जाएगी! तो अगले जन्म में उस गाँठ को हाथ लगाते ही बिखर जाएगी! गुरु तो सिर पर चाहिए ही न! आलोचना करने के लिए तो कोई चाहिए न? छूटने का रास्ता ही प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान है, और कोई रास्ता ही नहीं है। बंधने का रास्ता ही अतिक्रमण और आक्रमण का है। जब प्लस-माइनस एक सा ही होगा न, तो उससे जीरो हो जाएगा। प्रतिक्रमण तो, दाग़ पड़ते ही तुरंत धो डालें तब किया कहलाता है। जैनों में आलोचना, प्रतिक्रमण और प्रत्याख्यान निरंतर होता है। जैन तो कौन है कि जो रोज़ के पाँच सौ-पाँच सौ प्रतिक्रमण करता हो! निरंतर प्रतिक्रमण करके गाढ़ राग-द्वेष को धोकर पतले कर देना चाहिए। अगर सामनेवाला टेढ़ा है वह अपनी भूल है, हमने वह धोया नहीं और धोया है तो ठीक से पुरुषार्थ नहीं हुआ है। जैसे ही समय मिले, तब जो गाढ़ ऋणानुबंधी हों, उन्हें धोते रहना चाहिए। ऐसे बहुत नहीं होते हैं,
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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