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________________ आप्तवाणी-२ लेकिन उससे तो वह रोग मिटता है लेकिन मोक्ष के लिए कुछ भी नहीं हो पाता। यह तो जब माइन्ड निरंतर वश में रहे, तब कह सकते हैं कि रोग मिट गया। निरंतर वश, अर्थात् विचलित नहीं होता । मन तो ज्ञान से ही बंध सकता है, वह 'ज्ञानीपुरुष' ही कर सकते हैं ! ज्ञान नहीं हो तब तो जहाँ पर भी मन जाए वहाँ संसार खड़ा हो जाता है । हिमालय में जाए तो भी छोटा गुलाब का पौधा लगाता है, बकरी पालता है और इस तरह संसार खड़ा करता है । वह तो एकांत में भी फिर से भीड़ लगा देता है। ३०८ मन का स्वभाव मन का स्वभाव कैसा है कि, 'मुझे डिप्रेशन आ गया' ऐसा कहे तो एक रतल के बदले बोझा दस रतल का हो जाता है, और 'मुझे डिप्रेशन है ही नहीं' ऐसा कहे तो बोझा दस रतल के बदले एक रतल का हो जाता है। यहाँ रेडियो बज रहा हो और लगता है, अंदर ऐसा लगे कि, 'आवाज़ से नींद नहीं आएगी' तो नींद आती ही नहीं, यदि ऐसा रहे कि, 'आवाज़ में भी नींद आ जाएगी' तो आराम से नींद आ जाती है। ऐसा है यह जगत् ! हम लोग मन से अलग हैं, देह से अलग हैं, और वाणी से भी अलग हैं। पड़ोसी बर्तन खड़काए तो उसे कौन कहने जाएगा? खुद एक ही होता तो कहना पड़ता, हम तो उसकी क्रिया के जानकार हैं । यह मन, मन के धर्म में है। यदि अपने कान में शब्द नहीं घुसे तो मन पर असर होगा क्या? कुछ भी असर नहीं होगा, और कान में शब्द घुसे तो? नखरे करना तो मन का धर्म है । सार निकालना - वह बुद्धि का धर्म है। मन, बुद्धि, सभी उनके खुद के गुणधर्मों में हैं । तो उसमें हम कहाँ जाएँ? हमें अपने स्वधर्म में रहना है। प्रश्नकर्ता : मैं प्रयत्न तो बहुत करता हूँ मन की शांति के लिए, लेकिन स्थिरता ही नहीं आती। दादाश्री : कौन से धर्म का पालन करते हो? प्रश्नकर्ता : वैष्णव धर्म ।
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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