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________________ ध्यान २९३ वह 'सो' और श्वास निकला वह 'हम्,' यानी 'हमसो,' 'हमसो,' 'सोहम्' होता है, उसका ध्यान करो ऐसा कहेंगे लेकिन आत्मा सोहम् भी नहीं है और हमसो भी नहीं है। आत्मा शब्द में नहीं है, वह तो वीतरागों ने 'आत्मा', यों शब्द से संज्ञा की है। आत्मा पुस्तक में नहीं होता और शास्त्रों में भी नहीं होता, उन सभी में तो शब्द-आत्मा है। रियल आत्मा तो ज्ञानी के पास ही होता है। ये श्वासोच्छश्वास देखते रहते हैं, तो क्या उन्हें उससे समाधि रहती है? नहीं। उससे क्या होता है? कि मन टूट जाता है। मन तो नाव है। संसार सागर में से किनारे तक जाने के लिए मन की नाव की ज़रूरत पड़ती है। खुद के स्वरूप का ध्यान, वह ध्यान कहलाता है। दूसरा, खिचडी का ध्यान रखें तो खिचड़ी बनती है। ये दो ही ध्यान रखने चाहिए, बाकी के सब तो पागल ध्यान कहलाते हैं। इन 'दादा' के ध्यान में रहना है तो भले ही रहे, उसे भले ही और कोई समझ नहीं हो, लेकिन फिर भी खुद उस रूप होता जाएगा। ज्ञानीपुरुष, वे खुद अपना ही आत्मा है और इसीलिए फिर वह खुद 'उस' रूप होता जाता है। आत्मा प्राप्त हुआ, वह आत्मध्यान है और संसारी ध्यान में खिचड़ी का ध्यान करना है। सभी लोग जो ध्यान सिखलाते हैं, वे तो बल्कि बोझ बन जाता है। वह तो जिसे व्यग्रता का रोग है, उसे एकाग्रता का ध्यान सिखलाना पड़ता है, लेकिन औरों को उसकी क्या ज़रूरत है? वह ध्यान उसे कौन सी जगह ले जाएगा, उसका क्या ठिकाना? भगवान ने क्या कहा है कि इतना ध्यान रखना, 'खिचड़ी का ध्यान रखना और पति का ध्यान रखना, नहीं तो स्वरूप का ध्यान रख।' इनके सिवा और किसी ध्यान का क्या करना है? समाधि के लिए और कौन से ध्यान करने हैं? ये बाकी के बाहरवाले तो पर-ध्यान हैं। मात्र कान को जो प्रिय लगता कि बहुत अच्छा है, बहुत अच्छी आवाज़ है। कुछ के मन को प्रिय लगता है तो कुछ की बुद्धि को प्रिय लगता है। वह तो सबकी मति के अनुसार लगता है। भगवान महावीर की सभा में भी सेठ लोग भगवान की वाणी सुनने आते थे। उनकी (सर्वज्ञ की) वाणी इतनी मीठी
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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