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________________ आप्तवाणी-२ और मधुर होती है कि वह कान को अत्यंत प्रिय लगती है । वे सेठ लोग सुनने को बैठे रहते थे और सभा में ही रोटी और सब्ज़ी मँगवाकर खा लेते थे, घर पर भी नहीं जाते थे और वह बस उनके कान को ही प्रिय लगती थी। उन सेठों को आज भी मैं पहचानता हूँ, वे भी दुकान में कपड़ा खींच-खींचकर देते हैं ! तू किसीसे पूछ तो सही कि यह कौन सा ध्यान बरत रहा है। यह तो रौद्रध्यान है । वे सेठ कहेंगे कि, 'लेकिन दूसरा व्यापारी भी कपड़े खींचकर बेचता है न!' अरे, दूसरा व्यापारी तो कुँए में गिरेगा, तू किसलिए गिर रहा है ? २९४ चित्तशुद्धि की दवाई हमारी वाणी तो, किसी भी काल में नहीं सुनी हो, वैसी ग़ज़ब की अपूर्व है। इस वाणी को सुन-सुनकर भीतर धारण करे, और धारण करके वे ही शब्द खुद बोले और वे धारण रहें, तब उस समय चित्त की ग़ज़ब की एकाग्रता होती रहती है ! शुद्ध चित्त तो शुद्ध ही है, लेकिन व्यवहारिक चित्त है, वह इसके धारण होने से तत्क्षण शुद्ध हो जाता है । सिनेमा के गीत सुनने से उतने टाइम तक चित्त अशुद्ध होता रहता है, मूल अशुद्ध तो था, वह और अधिक अशुद्ध हुआ ! और दूसरा, कवि के पद गाते समय जितने समय तक वे पद धारण होते हैं, उतने समय तक चित्त शुद्ध होता है ! बिना समझे भी, यह छोटा बच्चा भी यदि धारण करके बोले, तब भी वह बहुत काम निकाल लेगा । धारण हुए बगैर बोला जा सकता है? जितना धारण करके बोलता है, उतने समय तक भीतर सभी पाप धुल जाते हैं ! बाहर कपड़े तो धोने आते हैं, लेकिन अंदर का किस तरह से धोएगा? इस जगत् में चित्तशुद्धि की दवाइयाँ बहुत कम है । अन्य कहीं पर बीस साल तक गाने से भी जितनी चित्त शुद्धि नहीं होती, उतनी शुद्धि यहाँ हमारी उपस्थिति में एक ही बार पद गाए, तो उतने में चित्त शुद्ध हो जाता है ! खुद बोले और फिर धारण करे और वैसा ही फिर से बोले न तो उससे ग़ज़ब की चित्तशुद्धि होती है ! ध्याता, ध्येय और ध्यान वे तीनों एकरूप हो जाएँ, उसके बाद ही फिर लक्ष्य बैठता है। इसलिए यहाँ हमारी उपस्थिति में आपको ध्यान करने
SR No.030014
Book TitleAptavani Shreni 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Aradhana Trust
Publication Year2014
Total Pages455
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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